BY– वैभव चौधरी,
किसी भी परिवार में जब-जब एक नन्ही परी(बेटी)का जन्म होता है उसके साथ परिवार के ढेर सारे सपने जुड़ जाते हैं। जब वह नन्हीं परी अपना कदम घर से बाहर निकालती है तभी से शायद उस पर राहू (अपराधी )घात लगाये बैठे रहते हैं और जैसे ही मौका मिला हमला बोल देते हैं। अर्थात हर परिवार का सपना होता है कि उसकी बेटी आसमान की उचाईयों को छुए, वह भी कल्पना चावला, सुनीता बिलियम्स, गीता फोगाट और साईना नेहवाल बने। मगर एक झटके में सब कुछ ख़त्म हो जाता है। आज देश की कोई बेटी खुद को सुरक्षित नहीं मानती। सब इसी आशंका में जीती हैं कि न जाने कब किसके साथ कुछ गलत हो जाए। और साथ में परिवार वालों को भी यही चिंता सताए रहती है।
इसी तरह सीबीएससी टॉपर रही रेवाड़ी की उस छात्रा की आँखों में निश्चित ही सुनहरे भविष्य के सपने पल रहे होंगे। उसे दरिंदगी का शिकार तब बनाया गया जब वह पढ़ने जा रही थी। यह घटना उस हरियाणा की है जहाँ की बेटियों नें पूरे देश को गर्व करने का मौका पिछले कई सालों से लेकर हाल में हुए एशियाड तक में अपना परचम लहरा कर दिखाया है। रेवाड़ी ( महेंद्रगढ़) की घटना ने बता दिया कि बेटियों को परीक्षा में टॉप करना या अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में मेडल जीतना कितना भी कठिन क्यों न हो, पर समाज की पुरुषवादी सोंच को बदलना उससे कहीं ज्यादा मुस्किल काम है। लडकियों को कुचलने की मानसिकता का तोड़ हम अभी भी क्यों नहीं निकाल पा रहे हैं।
दरअसल इसकी कई वजहें हैं। सबसे बड़ा कारण तो बलात्कार पीड़िता को तुरंत न्याय न मिल पाना है। ऐसे मामलों के निपटारे में काफी वक्त लगता है, अपराधी जल्दी पकड़े नहीं जाते, और जब उसे पकड़ लिया जाता है तो पुलिस पर उसे छोड़ने का राजनितिक दबाव आ जाता है। इसके बावजूद अपराधी यदि कोर्ट तक पहुंच जाये तो, कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है कि पीड़िता के लिए न्याय का ज्यादा महत्त्व शायद ही रह जाता है।
देश में हर एक घंटे में लगभग 4 से 5 बलात्कार की घटनाएँ होती हैं। मगर शोर कुछ मामलों में ही मचता है तब बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग भी की जाती है। इस मामले का मैं भी समर्थन करता हूँ कि बलात्कारियों को तुरंत फांसी की सजा हो , कुछ हद तक घटनाएँ कम हो जाएंगी। इससे अच्छा तो अंग्रेजों का समय था, उनके समय में सख्त सजा ‘काला पानी थी। सवाल है शिक्षा तंत्र में सुधार का भी। बालक में नैतिक शिक्षा की जानकारी भी दी जानी चाहिए और उन्हें बताया जाय कि हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए ? आखिर आज हम यह क्यों नहीं कर सकते ? हम क्यों नहीं अपने बच्चों को यह सिखाते हैं कि सभी इंशान बराबर हैं और हमें सबका सम्मान करना चाहिये। पुरुषसत्ता समाज लगातार मजबूत हो रहा है, आज भी ओंरतों को दोयम दरजे का समझा जाता है उन पर हुक्म चलाया जाता है। बलात्कार कि घटना को थामने के लिए पुलिस व्यवस्था में सुधार होना बहुत जरूरी है इसका झंडा महज लोग करीब 10 साल से उठाये हुए हैं पर अभी तक कुछ नही हो सका है हम चाहते हैं कि पुलिस संवेदनशील बनें। कल्पना कीजिये उस पीड़िता का दर्द ,जो अपनी शिकायत लेकर जब पुलिस स्टेशन जातीं हैं , तो उससे यह पूछा जाता है कि उसकी चूड़ियाँ टूटी कि नहीं , उसके साथ क्या–क्या और कैसे हुआ, बहुत ही अभद्र व्यवहार किया जाता है, उससे सांत्वना के कोई शब्द नहीं बोले जाते। मेडिकल करने के नाम पर उसे यहाँ –वहाँ घुमाया जाता है, पुलिस उसे गाड़ी में बिठाकर इस तरह घुमती है ,मानो वही अपराधी है अस्पतालों में भी डाक्टर बेरुखी से पेश आते हैं। क्या हमारी सरकार डाक्टरों और पुलिसों की अलग से टीम नहीं बना सकती जो बलात्कार के मामलों को प्राथमिकता के आधार पर देखें।
आज हम एक अलग दौर में जी रहे हैं। निश्चित ही हम स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नहीं, यह हमारा हिंदुस्तान नहीं है यह वह भारत नहीं है ,जहां सत्य वचन का सम्मान था, उसकी खिल्ली नहीं उड़ाई जाती थी, बड़ों की इच्छा का मान रखा जाता था और बेटियों को देवी समझकर पूजा जाता था। आज सब कुछ खत्म हो रहा है मासूम और दुहमुही बच्ची तक के साथ दरिंदगी की जा रही है, जबकि बलात्कार के बाद कोई भी लड़की जिन्दा लाश बनकर रह जाती है। उसे भविष्य में ढंग का काम नहीं मिलता ,वह मौत के समान जिन्दगी व्यतीत करने लगती है, शादी तो दूर की बात है उसे कोई कम्पनी तक भी नौकरी नही देती।
हमारा समाज उसी पीडिता को ही ताने दे देकर उसका जीना हराम कर देते हैं और बलात्कारी छुट्टू सांड की तरह बाजार में बेखौफ होकर घूम रहे हैं। बल्कि उन्हें अपने पर गर्व होता है , अरे हम कहते हैं ऐसी मर्दानगी किस काम की जो किसी की आबरू बचाने के बजाय लूट ली जाय। भारतीय समाज में बलात्कार ऐसा अभिशाप है ,जिससे समाज का हर तबका आहत है। बलात्कारी की न कोई जात होती है न कोई धर्म। वे इंसानियत के दुश्मन होते हैं,वे पैसों के बल पर न केवल पाक साफ बच निकलते हैं बल्कि उल्टा बलात्कार की शिकार अबलाओं के माथे पर इंसाफ के नाम पर बदचलनी का लांछन लगा देते है। इसके लिए हमारी व्यवस्था दोषी है।
मेरा कहने का यही उद्देश्य है कि पीडिता की हर सम्भव मदद की जाय और उसे जीने की राह बताई जाय। उसमें वो जज्बा है कि वो अब भी सुनीता बिलियम्स, कल्पना चावला बन सकती है ,बस आप राह दिखाइए वो सफर तय कर लेगी, उसका कदम उभारिये वो करोड़ों सीड़ियाँ खुद ब खुद चढ़ जायेगी और आसमान चूम लेगी।