BY– सुशील भीमटा
जहाँ देश का बड़े से बड़ा आदमी देश की सुरक्षा की चिंता किए बिना हथियारों में कमीशनखोरी करने या करवाने के संगीन अपराध में संलिप्त होने की आशंका में न्यायालय में तलब किया जा रहा हो और जिस देश में बैंकों के कर्जदार देश से बेख़ौफ़ विदेश भाग रहे हों फिर भी फर्क नहीं पड़ता और लोकतंत्र घुटन की सांसे ले रहा हो तो कैसी वतन परस्ती?
जबकि बोफोर्स के समय फर्क पड़ता था। सब जानते हैं ऐसे लोग आज पदों पर काबिज हैं जिनके नरसंहार के मामले न्यायालय में चल रहे हैं, वह कुर्सियों पर काबिज हैं मगर आज उन्हें अवतारी पुरुष बताया जा रहा है।
देश की सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया पर फर्जी मुठभेड़ में किसी अपराधी को मरवाने के आरोप लगते हैं और वह सीना चौड़ा करके घूमता है। और देश के आवाम का प्रतिनिधित्व करता है तो अमनों-चैन कैसे सम्भव?
आठ साल की मुसलिम लड़की से बलात्कार करनेेे वाले के खिलाफ कोई वकील केस लड़ने की हिम्मत करती है तो उसे जान से मारने की धमकी दी जाती है। एक निरपराध बंगाली मजदूर को एक धार्मिक उन्मादी मार डालता है और वह हीरो बन जाता है।
धर्म जाति वर्ग के नाम पर गरीब जनता गुमराह हो रही हो तो लोकतंत्र कैसे सांसे ले पाये? कहाँ तक गिनाएं! सत्ता जिनके हाथ हो और उनके हजार अपराध माफ हैं। यही नहीं आप ताकतवर जाति के हों तो हत्यारे के पक्ष में पूरा तंत्र खड़ा हो जाता है।
बलात्कार जैसे अब कोई अपराध ही नहीं है। झूठ बोलना, धमकाना, पीटना, सांप्रदायिकता के हक में बोलना एफआईआर दर्ज करने लायक अपराध भी नहीं हैं, बशर्ते कि वह आज की तारीख में एक खास राजनीतिक दल और विचारधारा का व्यक्ति हो।
कल दूसरे यही करेंगे और परसों इस देश में कोई भी अपराध करना, अपराध करना नहीं रह जाएगा और हर ऐसा आदमी संदिग्ध और अपराधी माना जाएगा जो इस सबमें शामिल नहीं होगा और विरोध भी करेगा।
वैसे अभी यह स्थिति आ चुकी है और हम लोकतंत्र में जी रहे हैं शायद। आज देश में हालात यह हैं कि साल 2019 के शुरुआत में ही आधे से ज्यादा एटीएम बंद होने जा रहे हैं। राममंदिर का मुद्दा गरमाने लगा है। कश्मीर में मौत का तांडव बढ़ता जा रहा है। किसान सुली चढ़ता जा रहा है। नशा, तस्करी, रेप, मर्डर जैसी वारदातें आम और सरेआम हो रही हैं मगर इनपर चर्चा ना होकर 2019 के लिए चालसाजियां की जा रही हैं।
दूसरी ओर विपक्ष बार-बार नोटबन्दी, नेट बैंकिंग, किसान, राफल, महंगाई, टेक्स के मुद्दों को लेकर 2019 का चुनाव लड़ रहा है। सवाल ये है कि अगर कांग्रेस को सत्ता मिल जाती है तो क्या वो इन मुद्दों का हल कर पाएगी या सिर्फ वो भी वर्तमान सरकार की तरह जुमलों पर जुमले डालती रहेगी?
हमें जागना होगा पूछना होगा इन कर्णधारों से क्या इन मुद्दों से वो देश की जनता को राहत दिलायेंगे ?
आज फिर चुनाव का समय है जनता जागे और पूछे की मुद्दे तो समस्त देश के सामने हैं तो क्या आप इनका हल कर पाओगे या सिर्फ चुनावी पैंतरे हैं। अगर हल कर सको तो कैसे करोगे? क्या करोगे जनता के सामनें रखो।
ये सवाल हमें करने होंगे वरना चुनाव का बहिष्कार करना होगा। मैं तो ये कहूँगा की चुनावी घोषणा पत्र को न्यायालय के अधीन सौंप देने की मांग रखा जाना ही इस बेलगामी का समाधान है, ताकि कोई भी राजनितिक दल वादा खिलाफी ना कर सके और लोकतंत्र जिंदा रहे और जनता को हक मिल पाये। वरना वादे और इरादे आप सब देख ही रहे हो। अंत में यही कहूंगा कि आज देश में लोकतंत्र अंतिम सांसे ले रहा है।
एक कानून चाहिए घोषणा पत्र को अम्ल में लानें के लिए…हिन्दोस्तान की आवाज चाहिए बेलगामों पर लगाम लगानें के लिए- सुशील भीमटा
लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।