लखनऊ: बाटला हाउस मुठभेड़ को 13 साल बीत चुके हैं. इसी कनेक्शन से आज़मगढ़ के मुस्लिम नवजवानों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी कर देश में होने वाली विभिन्न आतंकी घटनाओं का आरोपी बनाया गया था.
जयपुर, अहमदाबाद, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में होने वाले कई धमाकों के आरोपियों के विभिन्न राज्यों में चल रहे मुकदमों की गति और अभियोजन द्वारा मुकदमों की जल्द सुनवाई में अरुचि कई तरह के सवाल पैदा करती है.
जहां एक तरफ हैदराबाद धमाकों की सुनवाई सत्र न्यायालय में अभूतपूर्व तेज़ी देखने को मिली और आरोपी असदुल्लाह अखतर को दोषी करार दिया गया तो
दिल्ली में बाटला हाउस इनकाउंटर मामले की जगह मोहन चंद्र शर्मा की हत्या का मुकदमा चलाया गया और दो आरोपियों को निचली अदालत से सज़ा हुई.
जयपुर धमाकों का फैसला ग्यारह साल बाद आया, अहमदाबाद में सुनवाई पूरी हो चुकी है लेकिन अभी तक न्यायालय ने फैसला नहीं सुनाया है.
दिल्ली में चल रहे मुकदमे अभी जारी हैं तो उत्तर प्रदेश में दो आरोपियों को गोरखपुर न्यायालय में पेश किया गया है लेकिन मुकदमे की कार्रवाई नहीं चल रही है.
कई आरोपियों को अन्य आतंकी वारदातों में लिप्त दिखाया गया है, उन्हें अब तक न्यायालय में हाजिर नहीं किया गया है.
इस पूरे मामले के न्यायिक प्रक्रिया के सफर को देखें तो ऐसा लगता है कि बाटला हाउस फर्जी इनकाउंटर मामले में उठने वाले सवालों और न्यायिक या
किसी निष्पक्ष ऐजेंसी से जांच के मामले से बचने के लिए कुछ मुकदमों की सुनवाई तेज़ी से की गई और अपने पक्ष में निर्णय प्राप्त कर सवालों के जवाब और जांच के मामले को दफन कर दिया गया.
साथ ही यह भी सुनिश्चित किया गया कि अगर कुछ आरोपों से आरोपी बरी भी हो जाएं तो दूसरी जगह सुनवाई के नाम पर उनको लंबे समय तक कैद रखने की गुंजाइश बाकी रहे.
सवाल यह भी उठता है कि जिन जगहों पर निचली अदालत से फैसले आ चुके हैं वहां उच्च न्यायालय में की गई अपील की सालों से सुनवाई नहीं हो रही है.
हैदराबाद में असदुल्लाह का मामला हो या दिल्ली में शहज़ाद और आरिज़ का या फिर उत्तर प्रदेश में तारिक कासमी और नूर इस्लाम का सभी मामले हाईकोर्ट में लंबित हैं.
आरिफ नसीम को सितंबर 2008 में उत्तर प्रदेश एटीएस ने गिरफ्तार किया था और वहीं से कचहरी धमाको की आईएम और हूजी की संयुक्त कार्रवाई की थ्योरी लाई गई थी.
एक महीना बाद उसे गुजरात ले जाया गया और अब तक वह वहीं पड़ा है. उत्तर प्रदेश में अभी उसका मुकदमा फाइलों में बंद पड़ा है.
परिजन लखनऊ कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं कि उसे यूपी लाया जाए और मुकदमे की कार्रवाई आगे बढ़े लेकिन अभियोजन को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है.
अन्य अभियुक्तों को अभी तक न्यायालय में हाजिर ही नहीं किया गया है, गिरफ्तार नवजवानों और आतंकवाद के खिलाफ सरकार की कठोर नीति के नाम
पर कई बार राजनीतिक बिसात को बिछाई जा चुकी है लेकिन न्यायिक प्रक्रिया की सुध लेने में न तो एजेंसियों को कोई दिलचस्पी लगती है और न ही सरकारों की.
हो सकता है कि अहमदाबाद का फैसला उस समय आए जब यूपी में चुनावी राजनीति और गर्म हो चुकी हो.
आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार अभियुक्तों के खिलाफ यूएपीए जैसे क्रूर कानून की अति क्रूर धाराएं लगाई जाती हैं जिसके कारण ज़मानत मिलने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है.
जिस आरोपी पर यूएपीए की धाराएं लगा दी गयीं वह नव युवक हो या वरिष्ठ नागरिक उसे किसी हालत में ज़मानत नहीं मिलती.
भीमा कोरेगांव में 80 साल से अधिक आयु के फादर स्टेन स्वामी, जो पारकिंसन के कारण अपने हाथ से न तो खाना खा सकते थे और न पानी पी सकते थे,
गंभीर बीमारी से ग्रस्त होकर मौत की गोद में चले गए लेकिन ज़मानत नहीं दी गई. गौतम नवलखा और सुधा भारद्वाज आज भी अमानवीय स्थिति में जेलों में अपने दिन काट रहे हैं और ज़मानत की अर्जियां खारिज हो रही हैं.
पहला, ऐसे कैदियों जो वास्तव में राजनीतिक कैदी हैं लेकिन उन्हें राजनीतिक कैदी का दर्जा नहीं दिया गया. दूसरा, गंभीर बीमारियों जिसमें कोरोना संक्रमण भी शामिल है, में अस्थाई ज़मानत से भी वंचित रखा गया.
गौतम नवलखा चश्मे के बिना देख नहीं सकते लेकिन जेल में चश्मा पहुंचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा ठीक वैसे ही जैसे स्टेन स्वामी
हाथ में गिलास लेकर पानी नहीं पी सकते थे लेकिन पानी पीने के लिए स्ट्रॉ की अनुमति न्यायालय से लेनी पड़ी और काफी संघर्ष के बाद अनुमति मिल पाई थी.
ऐसा नहीं है कि यही व्यवहार सबके साथ हुआ है. साध्वी प्रज्ञा को बीमारी के नाम पर ज़मानत मिली, कहा गया कि वह चल फिर पाने में असमर्थ है,
वह तो चुनाव लड़ कर संसद पहुंच गयी, नाचते हुए वीडियो भी वायरल हुआ लेकिन जांच एजेंसियों को कुछ भी पता नहीं है.
मध्य प्रदेश से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लिए काम करने वाले कई लोग गिरफ्तार हुए लेकिन उनके खिलाफ यूएपीए की धाराएं नहीं लगाई गयीं.