लंबे बरसों से जातिगत जनगणना कराने की मांग जब धरातल पर उतरती नजर आ रही है तो ऐसे में इसके विरुद्ध विरोधी खेमा भी खड़ा हो गया है.
बिहार के मुख्यमंत्री जिनकी पहचान सुशासन बाबू के रूप में है, ने सामाजिक न्याय के उद्देश्य से जातिगत जनगणना शुरू करने का आदेश दे दिया है.
इससे सभी जातियों की सही संख्या का पता चलेगा, इसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों की संख्या तथा अनुपात में प्रतिनिधित्व कितना होना चाहिए, इसका भी हम अंदाजा लगा पाएंगे.
आजादी के 75 वर्षों के बाद जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, बावजूद इसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक असमानता जो देश में व्याप्त है, उसको हम दूर नहीं कर पाए.
पेरिस स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के नितिन कुमार ने 2012 में भारतीय समाज के जातीय समीकरण तथा पूंजी के बंटवारे पर एक शोध किया था,
जिससे पता चला कि दुनिया भर में धन के असमान वितरण तथा समाज पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का एक हिस्सा सामने आया.
आज भारत में जो चोटी के 10% अमीर लोग हैं, इन्होंने देश के 59% संपत्ति पर कब्जा कर लिया है. इस ढनाढय वर्ग की सूची में अगड़ी जातियों के लोगों की संख्या अत्यधिक है.
जबकि अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों की संख्या का अनुपात नाम मात्र है. जाहिर है एक साजिश के तहत आजादी के बाद से ही
सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से बहुजन समाज को क्या बनाए रखा गया ताकि यह तबका खून पसीना बहाए और मलाई स्वर्ण जातियां खाती रहें.
संभवत: यही वजह है कि बिहार की जातिगत जनगणना से मनुवाद के पोषक लोगों के पेट में दर्द हो रहा है. जो लोग दूसरों के हक पर, सदियों से कुंडली मारकर बैठे हुए हैं उनको डर है कि जातिगत जनगणना से उनका पोल खुल जाएगा.