अयोध्या तो बहाना है, देश की लंका लगाना है! आलेख: बादल सरोज

अयोध्या में और उसे लेकर पूरे देश में-उनका दावा है कि दुनिया भर के भारतवासियों के बीच भी-जो किया जा रहा है, उसके रूप और सार दोनों को समझने की शुरुआत शुरू से ही करने से समझने में आसानी होगी.

इसलिए नवनिर्मित राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के नाम पर, उसके बहाने जो कुछ हो रहा है, उसको समझने की शुरुआत 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने को,

आजाद भारत में लगे गांधी हत्या के बाद के, सबसे बड़े ज़ख्म से की जानी चाहिए. इस काण्ड के बाद तब के भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने

एनडीटीवी के साथ खास बातचीत में कहा था कि “अयोध्या में 6 दिसम्बर को जो हुआ, वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था, ये नहीं होना चाहिए था.

हमने इसे बचाने की कोशिश की थी, लेकिन हम कामयाब नहीं हुए. हम उसके लिए माफी मांगते हैं कारसेवकों का एक हिस्सा बेकाबू हो गया था और फिर उन्होंने वो किया, जो नहीं होना चाहिए था. इसलिए हम माफ़ी मांगते हैं.”

विध्वंस के एक दिन बाद उन्होंने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था कि ”यह मेरी पार्टी द्वारा किया गया सबसे खराब और गलत आकलन है.” ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं थे,

इस ध्वंसलीला के सूत्रधार और मौका-ए-वारदात पर हाजिर और नाजिर लालकृष्ण आडवाणी, जिन्हें अब इस समारोह, जिसमें सोनिया गांधी और सीताराम येचुरी तक को आमंत्रित किया गया है,

उसमें न आने की हिदायत दी गयी है, उन आडवाणी ने भी काण्ड के बाद इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेखों में 6 दिसम्बर को अपने “जीवन का सबसे दुखद दिन-सैडेस्ट डे”-बताया था.

वे यहीं तक नहीं रुके, इससे भी आगे जाकर उन्होंने कहा कि इमारत को गिराया जाना एक “भयानक गलती थी” और यह भी कि अपनी आँखों के सामने ऐसा होने देना नेतृत्व की विफलता थी.

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि बचपन से मेरी परवरिश जिस संगठन-आरएसएस- में हुयी है, वह जिस अनुशासन के लिए जाना जाता है, यह घटना उसके अनुरूप नहीं थी.

पूरा कुनबा ही बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद इसी तरह के भाव व्यक्त कर रहा था. दो साल बाद संघ के सरसंघचालक बने,

तत्कालीन सह-सरकार्यवाह राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया ने तो 7 दिसम्बर को बाकायदा बयान जारी किया कि उन्होंने मस्जिद (विवादित ढांचा) गिराए जाने की भर्त्सना की,

इसे संघ की प्रकृति और आचरण के विरुद्ध बताया और कहा कि ऐसा करने (मस्जिद गिराने) से संघ के मकसद को नुकसान पहुंचा है.

इस अटल स्वीकारोक्ति और सार्वजनिक माफी, आडवाणी प्रायश्चित भाव और रज्जू भैया अहसास के 31 साल बाद पहिया पूरी तरह घूम चुका है.

जिसे वे अपनी पार्टी का सबसे खराब, गलत आकलन, दुखद दिन, निंदनीय काम, संघ की प्रकृति और आचरण के विपरीत कृत्य बता रहे थे.

आज उनकी पार्टी और उनका संघ उसी काम को अपनी सबसे चमकदार उपलब्धि और कामयाबी मान कर चल रहा है. यह इसलिए हुआ कि कारसेवकों का वह हिस्सा जो,

बकौल वाजपेयी, बेकाबू होकर वह कर गया था, जिसे नहीं करना चाहिए था, वह बेकाबू हिस्सा आज सरकार को अपने काबू में किये बैठा है.

7 दिसम्बर ’92 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सम्पादकीय के शीर्षक “गणतंत्र को कलंकित” करने का सिलसिला नयी और खतरनाक ऊंचाई तक ले जाने में पूरी बदहवासी के साथ भिड़ा हुआ है.

इससे एक बार फिर इस कुनबे की एक साथ, एक ही समय में दो जुबानों से बोलने की महारत और जो किया है, स्वीकारने के साहस का अभाव साबित हो जाता है.

मतलब यह कि तब जो बोला जा रहा था, वह सच नहीं था, दिनदहाड़े की गयी इस बर्बरता से स्तब्ध देश और दुनिया की इंसानियत के क्षोभ और रोष को भटकाने के लिए

इस तरह की बयानबाजी की जा रही थी, यह याद दिलाना इसलिए आवश्यक है, ताकि आज जो बताया जा रहा है, उसे ठीक-ठाक तरीके से पढ़ा और समझा जाए.

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