पर्वतों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए पीपल फॉर हिमालय की शुरुआत

लद्दाख: पर पहाड़ प्रकृति का वह नायाब उपहार है जो सदैव उत्सुकता और कुतूहल के विषय बने रहे हैं जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ

वैसे-वैसे आधुनिक और सभ्य कहे जाने वाले मानव ने समय व्यतीत करने तथा सैर सपाटे के उद्देश्य से पर्वतों की शरण लिया.

यही वजह है कि पर्वतों की गोद में जाने के लिए अनेक पहाड़ियों को काटकर रास्ते, रिजॉर्ट, होटल बनाए गए. किंतु मानव के इस निर्माण के क्रम में उन

पर्वतीय जीव जंतुओं को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा जिनका यह पहाड़ और चोटियां घर थीं. इसी मुहिम को बचाने के लिए पीपल फॉर हिमालय की शुरुआत की गई है

जो नागरिक अधिकार संगठनों, सामाजिक, पर्यावरण न्याय के लिए प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में किया जा रहा है.

एक ऑनलाइन संवाददाता सम्मेलन के जरिए तमाम राजनीतिक पार्टियों के लिए पांच सूत्रीय मांग पत्र जारी किया गया है जिसके अंतर्गत संविधान में दर्ज छठी अनुसूची लागू करने,

लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने सहित 21 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठने वाले पर्यावरणवादी कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने कहा है कि

“अद्भुत टोपोग्राफी संस्कृति और जीवन शैली वाले क्षेत्रों में विकास और शासन का ऊपर से थोपा जाने वाला मॉडल काम करने वाला नहीं है.”

हिमालय से उठने वाली आवाजों को राष्ट्रीय स्तर पर धकेले जाने को सामने रखने की जरूरत है ताकि पर्वतों तथा उसमें रहने वाले समुदायों की भलाई हो सके.

विकास के नाम पर आज जिस तरीके से पर्यावरण को नष्ट किया जा रहा है यह आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती खड़ी करेगा.

‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति’ ने हिमालय नीति अभियान के अंतर्गत भूमिगत अतिक्रमण तथा भारी कचरे को देखते हुए बांध, रेलवे लाइन, हाईवे जैसी ढांचागत परियोजनाओं पर पूर्णत: रोक लगाने की मांग उठाई है.

इनका कहना है कि जोशीमठ में भूमि धंसाव की घटना प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदाएं हैं जिसके लिए ये नीतियां ही जिम्मेदार हैं.

अर्थव्यवस्था का फैलाव और शासन मुनाफा केंद्रित नहीं बल्कि जन केंद्रित होनी चाहिए. शासन की इन नीतियों के कारण हिमालय के चरवाहे, भूमिहीन दलित तथा महिलाएं आज हाशिए पर चले गए हैं.

इतना ही नहीं इनके जीवन, आजीविका के अधिकारों पर भी आधुनिक विकासात्मक नीतियां नकेल डालने का कार्य कर रही हैं.

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