BY-SATISH VERMA
जहां एक ओर देश में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व अपने आक्रामक दौर में है, वहीं अखिल भारतीय स्तर पर कुछ और भी घट रहा है, बहुजन समुदाय अपनी संस्कृति और परंपरा को पुनर्जीवन दे रहे हैं, अतीत के धुंधलके में छिपे या षडयंत्रपूर्वक खलनायक बना दिये गये अपने नायकों की पुनर्खोज कर रहे हैं।
झारखंड का असुर समुदाय ही सिर्फ महिषासुर को अपना पूर्वज नहीं मान रहा है बल्कि गुजरात के आदिवासी भी महिषासुर को अपना नायक मानने लगे हैं। इस प्रकार देखें तो महिषासुर शहादत दिवस अब अखिल भारतीय बहुजन सांस्कृतिक आंदोलन का रुप ले चुका है। झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता राजदेव विश्वबंधु बताते हैं कि वे पिछले दिनों गुजरात के दौरे पर थे तो उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता जयंती भाई ने बताया कि बड़ौदा के पंचमहल इलाके के 2000 से ज्यादा आदिवासी समुदाय इस साल महिषासुर शहादत दिवस मनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस साल देश भर में छोटे-छोटे गांवों व शहरों-कस्बों समेत 1000 से ज्यादा स्थानों पर महिषासुर शहादत अथवा महिषासुर स्मरण दिवस मनाया जा रहा है, जिनमें से अकेले पश्चिम बंगाल में 700 जगहों पर यह आयोजन हो रहा है। देश की सीमा पार कर यह आंदोलन अब नेपाल भी पहुंच गया है।
सरकार और मनुवादियों की बौखलाहट
महज पांच सालों में ही इन आयोजनों न सिर्फ देशव्यापी सामाजिक आलोडऩ पैदा कर दिया है, बल्कि ये आदिवासियों, अन्य पिछडा वर्ग व दलितों के बीच सांस्कृतिक एकता का एक साझा आधार भी प्रदान कर रहे हैं। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में भी महिषासुर शहादत दिवस मनाने की तैयारी चल रही है, वहां की बीजेपी सरकार ने राज्य में ऐसा माहौल बना दिया कि जैसे वहां कोई आतंकी संगठन आतंकी वारदात करने जा रहा हो। वहां के लोकप्रिय सीपीआई नेता मनीष कुंजाम, जिन्होंने महिषासुर से संबंधित एक पोस्ट व्हाट्स एप्प पर शेयर की थी, उनके खिलाफ ‘धर्म सेना’ ने थाने में तहरीर दर्ज करा दी थी। उसके बाद से वहां से आदिवासियों के बीच यह आंदोलन और तेज हो गया है।
क्या कहते हैं असुर
झारखंड की ही असुर समुदाय की कवियत्री और आदिवासी इतिहास की जानकार सुषमा असुर कहती हैं कि ‘अगर हम राक्षस होते तो हम हर रोज लोगों को चबा कर खा रहे होते। झारखंड में कई एमएनसी कंपनी के दैत्य आ कर हमें जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर रहे हैं तो क्या हम उन्हें चबा कर खा नहीं जाते। असुरों के साथ धार्मिक ग्रंथों ने जो ऐतिहासिक अन्याय किया है उसकी कलई खुलनी ही चाहिए। मनुवादियों ने साजिश के तहत मिट्टी की मूर्ति बनाकर हमारे वीभत्स काल्पनिक रुप गढ़े ताकि रंगभेदी, नस्लभेदी इतिहास की इजारेदारी पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सके। जान बूझ कर हमारे बड़े-बडे दांत बनाए, बड़े-बड़े नाखून बनाए और हमारे रंग-रुप को राक्षस जैसा बना दिया ताकि वो हमें जल-जंगल और जमीन से बेदखल कर अपनी सत्ता कायम कर सके। क्या कोई गोरा आदमी राक्षस नहीं हो सकता।’ सुषमा असुर ने हमसे बहुत ही संयमित स्वर में एक सवाल पूछा- ‘आप लोग पंडाल बनाते हैं, नौ दिन तक दुर्गा की पूजा करते हैं। और उसी पंडाल में लगे मेले में हर रोज औरत मर्दों के हाथ से अपमानित होती है। क्या वे मर्द राक्षस नहीं हैं।’सुषमा का सवाल जायज था क्यों हम ऐतिहासिक नायकों के चरित्र जिनके रुप रंग हमारे बहुजन आदिवासी समुदाय से मेल खाते हैं, जो हमारे मूल निवासी हैं, उनको राक्षस और दैत्य बनाकर मानवजाति को अपमानित कर रहे हैं, आदवासी-बहुजनों की आबादी का खलनायकीकरण कर रहे हैं।
रावण-महिषासुर हमारे पुरखे
मध्य भारत यानि मध्य प्रदेश के गोंडवाणा समाज के लोगों ने राज्यपाल को ज्ञापन देकर मांग की है कि इस साल दशहरा में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाए। गोंडवाणा समाज ने दिए ज्ञापन में स्पष्ट रुप से कहा है कि रावण और महिषासुर हमारे पूर्वज थे और उनका पुतला जलाना गोंडवाणा समाज का अपमान है। जाहिर है देश के मूलनिवासियों की सांस्कृतिक अस्मिता के खलनायकीकरण पर आज न कल तो सवाल उठता ही। अब हिन्दूवादी धार्मिक ग्रंथों के अस्तित्व पर भी बहुत जल्द संकट आएंगे, क्योंकि मिथकीय चरित्रों का फरेबी इतिहास और ग्रंथ ज्यादा दिन तक लोगों को भरमाए हुए नहीं रख सकता है।
न्याय और शांतिप्रिय बहुजन राजा महिषासुर
झारखंड के गिरीडीह जिले में वकालत कर रहे दामोदर गोप ने जानकारी दी कि ‘इस साल सिर्फ असुर समुदाय ही नहीं बल्कि महिषासुर शहादत दिवस मनाने के लिए यादव, कुशवाहा, कुम्हार, कुर्मी, निषाद, मांझी, रजक, रविदास आदि जातियांां बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही है। धनबाद, गुमला, कोडरमा, गिरीडीह समेत कई जिलों में महिषासुर शहादत दिवस मनाने की जोर-शोर से तैयारी चल रही है। महिषासुर हमारे पूर्वज थे और उनके बारे में ब्राह्मणों द्वारा स्थापित किए गए झूठ का पोल खोलने के लिए इस बार हम लोग हजारों की संख्या में ऐतिहासिक साक्ष्यों से जुड़े दस्तावेजों का पर्चा भी छपा रहे हैं, जिसमें यह प्रमाणित है कि महिषासुर एक शांतप्रिय और न्यायप्रिय राजा थे।’ दामोदर गोप इतिहासकार डीडी कौशांबी के लिखे ऐतिहासिक प्रमाण का हवाला देते कहते हैं कि ‘महिषासुर यादवों के राजा थे। इतिहासकार डी डी कौशांबी ने महिषासुर को म्होसबा कहा है जो पशुपालक है, गवली है। सामाजिक इतिहास में तो पशुपालक यादव ही रहे हैं।’ कौशांबी ने अपनी किताब प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता में लिखा है कि ‘जिन पशुपालकों (गवलियों) ने वर्तमान दुर्गा देवी को स्थापित किया है, वे इन महापाषाणों के निर्माता नहीं थे, उन्होंने चट्टानों पर खांचे बना कर महापाषाणों के अवशेषों का अपने पूजा स्थलों के लिए, स्तूपनुमा शवाधानों के लिए, सिर्फ पुन: उपयोग ही किया है। उनका पुरुष देवता म्हसोबा या इसी कोटि का कोई देवता बन गया, जो आरंभ में पत्नी रहित था और कुछ समय के लिए खाध संकलनकर्ताओं की अधिक प्राचीन मातृदेवी से उसका संघर्ष भी चला। परंतु जल्दी ही इन दोनों मानवसमूहों का एकीकरण भी हुआ और देवी (दुर्गा) और देवता (म्हसोबा) का विवाह भी हो गया। कभी-कभी किसी ग्रामीण देव स्थल में महिषासुर-म्हसोबा को कुचलने वाली देवी का दृश्य दिखाई देता है तो 400 मीटर की दूरी पर वह देवी, थोड़ा भिन्न नाम धारण करके उसी म्हसोबा की पत्नी के रुप में दिखाई देती है।’ कौशांबी की यह स्थापना इस बात की तस्दीक करती है कि महिषासुर यानि म्हसोबा पशुपालकों का देवता था, जिसके साथ देवी दुर्गा ने विवाह किया। खाध संकलनकर्ता आर्य़ थे, जिन्होंने खल स्त्री के जरिए पशुपालकों का नरसंहार किया था और अपनी सत्ता कायम की थी।
अनूठा अनुभव
महिषासुर दिवस मनाने वालों का कहना कि वह तो आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी और महिषासुर हम अनार्यों के पुरखा और नायक हैं। इन आयोजनों के एक अध्येता के रूप में देश के विभिन्न हिस्सों में महिषासुर दिवस के आयोजकों से बात करना मेरे लिए भी एक अनूठा अनुभव रहा। झारखंड के असुर समुदाय से जुडे एक सामाजिक कार्यकर्ता अनिल असुर को जब मैंने फोन लगाया तो उन्होनें अभिवादन में शुरू और अंत दोनों में हमसे जय महिषासुर कहा। यानि महिषासुर को ब्राह्मणों ने चिरकाल से जो दानव बना कर रखा है, वह धीरे-धीरे अब नायक बनते जा रहा है। खास बात यह है कि असुर समुदाय जिनकी आबादी अब 9000 के आसपास ही सिमट कर रह गई है, वह महिषासुर को पूर्वज तो मानते हैं मगर उनको देवता नहीं बनाते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि देवी-देवता तो ब्राह्मणों ने अपनी झूठी सत्ता स्थापित करने के लिए बनाया था। हमें तो बस अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान भर की दरकार है।
आदिवासी इतिहास और बहुजनों के सांस्कृतिक इतिहास पर शोध कर रहे दिल्ली के विष्णु रावत बताते हैं कि ‘महिषासुर- रावण को नायक मानने का इतिहास कोई नई बात नहीं हैं। पेरियार और बाबा साहेब ने काफी पहले हिन्दू धर्म के मिथकीय इतिहास पर चोट करते इन बातों को जिक्र किया था। ईश्वर की अवधारणा ही झूठी और मिथकीय है। हिन्दू धर्म ग्रंथों का इतिहास दरअसल देश की बहुजन आबादियों के शोषण और उनको खलनायक साबित करने का इतिहास है।’
महिषासुर दिवस मनाने वाले लोग बताते हैं कि दुर्गा व उनके सहयोगी देवताओं द्वारा महिषासुर की हत्या कर दिये जाने के बाद आश्विन पूर्णिमा को उनके अनुयायियों ने विशाल जनसभा का आयोजन किया था, जिसमें उन्होंने अपनी समतामूलक संस्कृति को जीवित रखने तथा अपनी खोई संपदा को वापस हासिल करने का संकल्प लिया था। यही कारण है कि विभिन्न स्थानों पर जो आयोजन हो रहे हैं, उनमें से अधिकांश आश्विन पूर्णिमा वाले दिन ही होते हैं। यह पूर्णिमा दशहरा की दसवीं के ठीक पांच दिन बाद आती है। हालांकि कई जगहों पर यह आयोजन ठीक दुर्गा पूजा के दिन भी होता है तथा कहीं-कहीं आयोजक अपनी सुविधानुसार अन्य तारीखें भी तय कर लेते हैं। कहीं इसे ‘महिषासुर शहादत दिवस’ कहा जाता है तो कहीं ‘महिषासुर स्मरण दिवस।’
महिषासुर शहादत दिवस ले रहा है आंदोलन का स्वरुप
उत्तर प्रदेश के देवरिया के निकट डुमरी में ‘यादव शक्ति’ पत्रिका के प्रधान संपादक चंद्रभूषण सिंह यादव व लखनऊ में इसी पत्रिका के संपादक राजवीर सिंह के निर्देशन में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन पिछले चार सालों से किया जाता है
- झारखंड के धनबाद जिले के निरसा प्रखंड के मुगमा में भी 2012 के बाद से हर साल महिषासुर को स्मरण किया जा रहा है।
- झारखंड के गिरिडीह जिला में भी अनेक जगहों पर महिषासुर दिवस मनाया जाने लगा है। जिला में इन आयोजनों को वरिष्ठ अधिवक्ता दामोदर गोप का नेतृत्व प्राप्त है।
-
इसी जिला के धनवार प्रखंड महिषासुर दिवस का आयोजन अरविंद पासवान करते हैं। वे बताते हैं कि इस साल आश्विन पूर्णिमा को गिरीडीह और आसपास के जिलों में और बडे पैमाने पर महिषासुर स्मरण दिवस मनाया जा रहा है।
- बिहार के मुजफ्फरपुर के सिंकंदरपुर कुंडल में इस साल आश्विन पूर्णिमा को महिषासुर दिवस मनाया जाएगा।
- बिहार के मधेपुरा निवासी, पेशे से शिक्षक हरेराम मूलत: एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी टीम के निर्देशन में महिषासुर महोत्सव मनाया जाएगा।
- बिहार के सुपौल जिले में सामाजिक कार्यकर्ता अभिनव मल्लिक ने बताया कि सुपौल शहर से सटे आदिवासियों की बस्ती सोनक में असुर समुदाय के लोग बसते हैं और वो काफी पूर्व से ही महिषासुर और रावण को अपना पूर्वज मानते आ रहे हैं।
- बिहार के पटना में अधिवक्ता मनीष रंजन, पत्रकार नवल किशोर कुमार, राकेश यादव भी महिषासुर शहादत दिवस को लेकर जागरुकता फैला रहे हैं।
- बिहार के सीवान में रामनरेश राम, प्रदीप यादव, पूर्वी चंपारण में बिरेंद्र गुप्ता, पश्चिमी चंपारण में रघुनाथ महतो, शिवहर में चंद्रिका साहू, सीतमाढ़ी में रामश्रेष्ठ राय और गोपाल गंज के थावे मंदिर के महंथ राधाकृष्ण दास महिषासुर की गाथा को शहादत/स्मरण दिवस के माध्यम से जन-जन तक पहुंचा रहे हैं।
- उत्तर प्रदेश के कोशांबी के जुगवा में एनबी सिंह पटेल और अशोक वद्र्धन हर साल एक बडा आयोजन करते हैं। पिछले वर्ष इन लोगों ने अपने गांव का नाम बदलकर ‘जुगवा महिषासुर’ करने व वहां इस आशय का बोर्ड लगाने की घोषणा की है।
- मिर्जापुर में कमल पटेल और सुरेंद्र यादव, इलाहाबाद में लड्डू सिंह व राममनोहर प्रजापति, बांदा में मोहित वर्मा, बनारस में कृष्ण पाल, अरविंद गौड और रिपुसूदन साहू इस आयोजन के कर्ताधर्ता हैं।
- कर्नाटक के मैसूर, तेलांगना के हैदराबाद, मध्यप्रदेश के बालाघाट के मोरारी मोहल्ला और उड़ीसा के कई शहरों में भी महिषासुर दिवस मनाया जाने लगा है।
-
कर्नाटक के मैसूर के तर्क वादियों ने नवरात्रि की पूर्वसंध्या पर, चामुण्डी हिल्स में महिषासन हब्बा (महिष उत्सव) का आयोजन कर रहे हैं। कार्यक्रम के आयोजकों में कर्नाटक दलित वेलफेयर ट्रस्ट व अन्य प्रगतिशील संगठन शामिल रहते हैं। मैसूर विश्वविद्यालय के मीडिया अध्येता व तर्कवादी प्रोफेसर बीपी महेशचन्द्र गुरू के अनुसार ‘कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा महिष को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि उन्हें चामुण्डेश्वरी ने मारा था, जैसा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में बताया गया है। महिष एक बौद्ध-बहुजन राजा थे, जो मानवीय मूल्यों और प्रगतिशील विचारधारा के आधार पर महिष मंडल पर शासन करते थे। वे समानता और न्याय के प्रतीक थे।’
(अस्वीकरण – लेखक माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर सतीश वर्मा 10 सालों की सक्रिय पत्रकारिता के बाद सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय हैं। यह लेेेख फारवर्ड प्रेस वेबपोर्टल से लिया गया है । लेख में दिए गए संपूर्ण विचार लेखक के निजी विचार हैं। जानकारी और तथ्य को लेकर द फायर की किसी भी प्रकार से कोई जवाबदेही नहीं है )