आज जो हम बीज बो रहे हैं वह एक घने वृक्ष के रूप में फैलेगा और उसकी शाखें देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैल जायेंगी : सर सैयद अहमद ख़ाँ

BYTHE FIRE TEAM

17अक्तूबर, 1817 का वह दिन उस शख्स ने जन्म लिया जिसने हिन्दोस्तान में शिक्षा को नया रूप और उर्दू नस्र को नई सूरत प्रदान की। दिल्ली के सादात (सैयद) ख़ानदान में जन्म लेने वाले सैयद अहमद बिन मुत्तक़ी खान ने अरबी फ़ारसी हिंदी और अंग्रेजी के विद्वानों के ज़ेरे सरपरस्ती तालीम हासिल की। वे एक महान विचारक और चिंतक थे। आधुनिक शिक्षा के प्रेरक और आधुनिक उर्दू नस्र के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खां ने सिर्फ़ शैली ही नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों के एहसास के ढंग को भी बदला। उन्होंने वैज्ञानिक,कथ्यात्मक और तर्कपूर्ण विचारों को बढ़ावा दिया। उनके आंदोलन ने शायरों और नस्र लिखनेवालों की एक बड़ी संख्या को प्रभावित किया। सर सैयद की गिनती हिन्दुस्तान के बड़े सुधारवादियों में होती है।

साहित्यिक इतिहास 

सर सैयद ने धार्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर काफ़ी लिखा। 19वीं शताब्दी के अंत में भारतीय इस्लाम के पुनर्जागरण की प्रमुख प्रेरक शक्ति हुई। उन्होंने उर्दू कृतियों में मुहम्मद के जीवन पर लेख (1870) और बाइबिल तथा क़ुरान पर टीकाएँ सम्मिलित हैं।

23 वर्ष की आयु में धार्मिक पुस्तिकाएँ लिखकर, सर सैयद ने अपने उर्दू लेखन की शुरुआत की। उन्होंने 1847 में एक उल्लेखनीय पुस्तक अतहर असनादीद (महान लोगों के स्मारक) प्रकाशित की, जो दिल्ली के पुराविशेषों पर आधारित थी। उनकी पुस्तिका भारतीय विद्रोह के कारण इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी।

उन्होंने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेज़ों का साथ दिया। परंतु अपनी पुस्तिका में उन्होंने कुशलता व निर्भीकता से ब्रिटिश प्रशासन की उन कमज़ोरियों और ग़लतियों को उजागर किया। जिनके कारण असंतोष और देशव्यापी विरोध पनपा था। इस पुस्तिका को अंग्रेज़ अधिकारियों ने बारीकी से पढ़ा और ब्रिटिश नीति पर इसका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा।

धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद ख़ाँ ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना, जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई. में ‘असबाबे-बगावते-हिंद’ शीर्षक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया। क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं।

दिल्ली के निवासकाल में ‘आसारुस्सनादीद’ शीर्षक पुस्तक लिखकर सर सैयद ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया और इस पुस्तक के आधार पर उन्हें रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन का फेलो नियुक्त किया गया। गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई. में प्रकाशित हुआ।

धर्म में रूचि 

धर्म में उनकी सक्रिय रुचि थी, जो जीवनपर्यंत रही। उन्होंने बाइबिल की सहृदय व्याख्या से शुरुआत की और पैग़ंबर मुहम्मद पर पुस्तक लिखी, जिसका उनके पुत्र ने एस्सेज़ ऑन द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद शीर्षक से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। उन्होंने क़ुरान पर आधुनिक व्याख्या के कई खंड लिखने के लिए भी समय निकाला। अपनी इन कृतियों में उन्होंने इस्लामी मत का समकालीन वैज्ञानिक तथा राजनीतिक प्रगतिशील विचारों से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया।सर सैयद के यात्रावृत्तांत और आलेख भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। ‘वैज्ञानिक समाज’ की स्थापना भी 1864 ई. में सर सैयद अहमद ख़ाँ ने की तथा 1875 ई. में ‘अलीगढ़ मुस्लिम एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज’ की स्थापना की।

शिक्षा और सर सैयद 

उन्होंने प्रचलित पारम्परिक शिक्षानीति का विरोध किया। वे मानते थे की शिक्षा का उद्देश्य छात्र की बौद्धिक चेतना को उजागर करना व उसके व्यक्तित्व का निखार करना है। सर सैयद ने 1886 में ऑल इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए देश भर में आयोजित किया जाते थे।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की तर्ज़ पर बनाया पहला शिक्षण संस्थान 

सर सैयद का शिक्षा-संस्थान खोलने का विचार हुआ तो सर सैयद ने अपनी सारी जमा-पूँजी यहाँ तक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की। लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 में अलीगढ़ में ‘मदरसतुलउलूम’ एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया गया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद सैयद ने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज पर ब्रिटिश राज के समय बनाया गया पहला उच्च शिक्षण संस्थान था। सैयद की परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में इसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।

सर सैयद का फ़ैसला कि तमाम कोशिशें मुसलमानों को नये दौर की तालीम देने पर पूरी ताक़त लगा दी ये बिल्कुल सही था। बिना इस तालीम के मेरा ख़्याल है कि मुसलमान नये तरह की राष्ट्रीयता में कोई हिस्सा नहीं ले सकते। बल्कि वे हमेशा के लिए हिन्दुओं के ग़ुलाम बन जाएँगे। जा तालीम में आगे थे और आर्थिक दृष्टिकोण से भी मज़बूत थे।          – पं. जवाहर लाल नेहरू 

भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के पुर्नजागरण के प्रतीक सर सैयद अहमद ख़ाँ का उद्देश्य मात्र अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना ही नहीं था बल्कि उनकी हार्दिक कामना थी कि अलीगढ़ में उनके द्वारा स्थापित कॉलेज का प्रारूप एक ऐसे केन्द्र का हो जिसके अधीन देश भर की मुस्लिम शिक्षा संस्थायें उसके निर्देशन में आगे बढ़ें ताकि देश भर के मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर राष्ट्र निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अधीन स्थापित होने वाले नये केन्द्रों के गठन से सर सैयद अहमद ख़ाँ का सपना साकार होने जा रहा है।

एम. ए. यू. कॉलेज के आधारशिला समारोह में 8 जनवरी, 1877 को लॉर्ड लिटन के सम्मुख सर सैयद ने कहा था कि “आज जो हम बीज बो रहे हैं वह एक घने वृक्ष के रूप में फैलेगा और उसकी शाखें देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैल जायेंगी। यह कॉलेज विश्वविद्यालय का स्वरूप धारण करेगा और इसके छात्र सहिष्णुता, आपसी प्रेम व सद्भाव और ज्ञान के सन्देश को जन-जन तक पहुँचायेंगे।”

पूरे विश्व में छात्र मानते हैं सर सैयद का जन्मदिन 

आज इस संस्था के छात्र 92 देशों में फैले हुए हैं और देश का यह मात्र पहला ऐसा संस्थान है जिसके छात्र पूरी दुनिया में अपने संस्थापक सर सैयद का जन्म दिवस मनाते हैं। सर सैयद भारतीय मुसलमानों के ऐसे पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने अज्ञानता की काली चादर की धज्जियाँ उड़ाकर मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना जागृत की।

सभी धर्मों के लिए खोले एएमयू के द्वार 

सर सैयद के ‘एम. ए. यू. कॉलेज’ के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले हुए थे। पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा कि शिक्षा की भी व्यवस्था की गई। स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए। सकूल तथा कॉलेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया। कॉलेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था।

हमेशा सवर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा सर सैयद का नाम

मुक्त विचारो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, साम्प्रदायिक सौहार्द के कारण उनका सर्वत्र सम्मान होता था। अंग्रेज सरकार ने प्रसन्न होकर इन्हें ” नाइट कमांडर ऑफ़ स्टार ऑफ़ इंडिया ” ( के. सी. एस. आई. ) की उपाधि तथा एडिनबरा विश्वविद्यालय ने ” डॉक्टर ऑफ़ लॉ ” की मानक उपाधि से सम्मानित किया। 25 मार्च सन 1898 को इस महान शिक्षाविद् का निधन हो गया।

शिक्षा के क्षेत्र में अपार योगदान के लिए सर सैयद अहमद खान का नाम हमेशा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।

 

( साभार-universitycircle.in )

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