BYDeepak Bhaskar


ऐसा कतई नहीं कि सब कुछ एकदम पहली बार हो रहा है. लेकिन जो हो रहा है और जिस तरह से हम इसे होने दे रहे हैं वो सब पहली बार जैसे ही हो रहा है. घटनाएं पहले भी होती थी लेकिन हम उन घटनाओं पर चिंता जताते थे, उसे कभी सही नहीं ठहराते थे.

पहले दो लोगों के बीच मारपीट को बस दो लोगों के बीच की मारपीट ही समझा जाता था अब वो दो लोगों के आपसी झगड़े को सांप्रदायिक झगड़े के तौर पर भी देखा जाने लगा है.

मेरे गांव में किसी मुसलमान की बकरी जब किसी हिन्दू किसान के खेत में धान चर जाए तो पूरा समाज उसे गलत कहता. उसे समझाया जाता लेकिन अब वो बकरी के झगड़े को भी साम्रदायिक रंग दे दिया जाता है. अब उसे एक संप्रदाय बचाने में भी लगा रहता है.

वो भूल गया है की गलत और सही क्या है. शायद हम तब समाज थे अब हम बस संप्रदाय बनकर रह गए हैं. हम उस समस्या में फंस चुके हैं जहाँ से निकलने का रास्ता लगभग बंद हो चुका है.

नफरत यही करती है वो सारे रास्ते बंद कर देता है और फिर उस चारदीवारी से न तो नफरत करने वाला निकल पाता है, न ही नफरत झेलने वाला. समाज, सही और गलत में फर्क करता है, संप्रदाय, शायद ये कभी नहीं कर पाता। जिस समाज में सब सही हो जाए, किसी भी चीज को गलत न कहा जाये तो हमें मान लेना चाहिए कि वो समाज अपने अंत का रास्ता अख्तियार कर चूका है.
अब आप जहाँ देखिये वहीं कुछ न कुछ झगड़े, फसाद हो रहे हैं.

छोटी झड़प भी अब विकराल रूप लेने की सम्भावना समेटे हुए रहती है. वो शायद इसलिए भी क्यूंकि हम सांप्रदायिक होते जा रहे हैं. हमने बड़ी मुश्किल से एक समाज का रूप लिया था लेकिन अब हम फिर से विभिन्न संप्रदायों में बट चुके हैं.

पहले हमें किसी के किसी भी घटना में मर जाने का गम होता था. हमें यह पता था की किसी की हत्या गलत है और अब चूँकि हम सांप्रदायिक हो गए हैं इसलिए हत्या का भी तर्क बना लिए गया है.

हमें पता ही नहीं चला कि, हम कब, समाज से भीड़ बन गए हैं. ये वो स्थिति है जहाँ हम शायद, खुद को उस आग में धकेलने की तैयारी कर रहे हैं. समाज से संप्रदाय की ओर जाने वाला रास्ता उस नफरत की तारकोल से बना होता है जिस पर चलते हुए तारकोल आपके पैरों में लिपटता हुआ जाता है.

आप छुड़ाने का प्रयास करते हैं लेकिन वो छूटता ही नहीं है. समाज में अनबन होती है, झगड़े होते हैं, लेकिन एक दूसरे के लिए नफरत नहीं होती. वहीं दूसरी ओर, संप्रदाय में झगड़े नहीं होते, अनबन नहीं होती बल्कि नफरत होती है जिसे ही वो खुद के होने का वजूद मान लेता है.

गुस्सा होना भी एक मानवीय प्रवृत्ति ही है लेकिन नफरत का होना तो सांप्रदायिक प्रवृति है. और अब कहीं गुस्सा नहीं दिखता बस नफ़रत दिखती है. इतनी नफरत की बस वो मानवता को ही कठघरे में खड़ा कर दे रहा है.

हम शायद इसे समझ नहीं पा रहे हैं लेकिन अब ये नफरत हमारे परिवार तक पहुँच गयी है. जहाँ हम अपने लोगों से झगड़ नहीं रहे हैं बल्कि नफरत करने लगे हैं. नफरत का इलाज प्रेम भी नहीं कर पाता क्योंकि नफरत का चारकोल प्रेम को भी जकड लेता है.

नफरत का एकमात्र उपाय है कि हम नफरत न करें. हम संप्रदाय से बाहर निकलकर एक समाज बनें. वो समाज जहाँ गलत और सही की समझ हो, मानवता का विचार हो. अन्यथा हम सभ्यता बनने से पहले ही एक ऐसा असभ्य समाज बन जाएंगे जिसे देखकर हमारी आने वाली नस्लें हमें कोसने के सिवा कुछ नहीं कर पाएंगी.

 

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