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(बादल सरोज)

आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने ताजा बयान से एक नयी भागवत कथा की शुरुआत कर दी है.

हाल ही में एक आयोजन में उन्होंने कहा कि “हमने साथी मनुष्यों को सामाजिक व्यवस्था के तहत पीछे रखा, उनकी जिंदगी जानवरों जैसी हो गई, फिर भी उनकी परवाह नहीं किया.

ये सब 2000 साल तक जारी रहा, जब तक हम उन्हें समानता प्रदान नहीं करते, तब तक कुछ विशेष उपाय करने होंगे और आरक्षण उनमें से एक है.

इसलिए हम संविधान में दिए गए आरक्षण को पूरा समर्थन देते हैं.” वे यहीं तक नहीं रुके इसके आगे जाकर उन्होंने कहा कि “समाज में भेदभाव मौजूद है, भले ही हम इसे देख न सकें.

समाज के जो वर्ग 2,000 साल तक भेदभाव से पीड़ित रहे, उन्हें समानता का अधिकार दिलाने के लिए हम जैसे लोगों को अगले 200 साल तक कुछ परेशानी क्यों नहीं झेलनी चाहिए.”

“आरक्षण सिर्फ आर्थिक मसला नहीं है यह सम्मान देने का सवाल भी है.” इस नई भागवत कथा ने बहुतों को चौंकाया है!! ऐसा होना लाजिमी भी था, क्योंकि अभी 7 महीने भी नहीं हुए,

जब इन्हीं ने कहा था कि “जाति और उसके आधार पर भेदभाव की रचना भगवान् ने नहीं, पंडितों ने की है.” बाद में किन्तु-परन्तु, अगर-मगर करते हुए संघ ने इस बयान को लपेट भी लिया था. 

इससे पहले भागवत जी का संघ कहता रहा है कि जातियां और उन पर आधारित भेदभाव कभी था ही नहीं, इसे तो मुस्लिम आक्रान्ताओं के राज में उनके आने के बाद पैदा करके प्रचलन में लाया गया.”

अब अचानक बिना कोई कारण बताये आरएसएस प्रमुख एक नयी और अपने अब तक के प्रचार के हिसाब से बिलकुल ही उल्टी बात बोल रहे हैं.

ध्यान रहे कि अगले 200 वर्षों तक आरक्षण को वे भागवत जरूरी बता रहे हैं, जिन्होंने अभी फकत 8 साल पहले 2015 में आरक्षण की समीक्षा किये जाने की जरूरत बताई थी

जिनके आरएसएस ने प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रताप सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने के बाद पूरे देश में पहले आरक्षण विरोधी आंदोलनों को लगभग उन्माद की तरह भड़काया था. 

मंडल के खिलाफ कमंडल को खड़ा करने के लिए सोमनाथ से अयोध्या की वह रथ यात्रा भी शुरू कर दी थी, जिसका अंजाम इस देश ने

आजादी के वक़्त हुए विभाजन के दौरान हुई हिंसा के बाद की सबसे बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा और बाद में बाबरी मस्जिद के ध्वंस और उससे शुरू हुए

उस खतरनाक सिलसिले के रूप में देखा और भुगता है, जो अब ज्ञानवापी तक पहुँच गया है. अब यह केंद्र और राज्य की सत्ता में जाकर भारत के संविधान सम्मत ढाँचे के ऊपर जाकर बैठ गया।

यह वही समूह है, जिसने हाल के वर्षों में उठी जातिगत जनगणना की जायज मांग को मानने से न केवल साफ़ इनकार किया, बल्कि उसे देश की एकता को तोड़ने वाली मांग बताया.

इससे जुड़े कथित विचारक लोग कुछ राज्यों द्वारा की जा रही जातिगत जनगणना को रुकवाने सर्वोच्च न्यायालय तक गए. मोदी सरकार ने भी अपने हलफनामे में

जातिगत जनगणना का विरोध किया, हालांकि बाद में उसके संबंधित पैरा को त्रुटि और भूल बताते हुए वापस ले लिया.

यह वही संघ है जिसके अनेक नेताओं ने, मोदी के सत्ता में आने के बाद, एक बार नहीं, अनेक बार साफ़-साफ़ दम्भोक्ति की कि “वे दलित, आदिवासियों सहित सभी तरह के आरक्षण को संविधान में बिना समाप्त किये हुए ही आरक्षण को निरर्थक बनाकर खत्म कर देंगे.”

पिछली 9 वर्षों में सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों और कामों का अंधाधुंध निजीकरण करके, उन्हें थोक के भाव में पूरा-पूरा बेचकर,

बचे खुचे सरकारी कामकाजों में एक तरफ छंटनी करते, दूसरी तरफ भर्ती पर रोक लगाकर उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी. स्थिति तो यहाँ तक आ गयी कि

लगभग सारे केन्द्रीय संस्थान अब टुकड़ों में भर्ती कर रहे हैं, वे उसी सीमित संख्या में भर्ती कर रहे हैं, जितनी संख्या में रिक्तियां निकालने से आरक्षण के प्रावधान से बचा जा सकता है.

6 सितम्बर को ख़ास इसी सन्देश को देने के लिए प्रायोजित और चुनिंदा तरीके प्रचारित-प्रसारित की गयी वार्ता में इधर मोहन भागवत मुंह में सम्मान, बगल में मनु की दुकान मार्का

इस नयी भागवत का पहला पद उच्चार रहे थे, कुछ चतुर और कुछ भोले नागरिक इसमें बहुत कुछ बदलाव पढ़ रहे थे.

ठीक उसके 5 दिन बाद 11 सितम्बर को तमिलनाडु विश्व हिन्दू परिषद के नेता आर बी वी एस मणियन दलितों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियाँ कर रहे थे.

चन्नई के भारतीय विद्या भवन में एक कथित आध्यात्मिक कार्यक्रम में डॉ अम्बेडकर को गरिया रहे थे.  तामिलनाडु पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है.

मगर बाकी प्रदेशों की-खासकर भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारें खुलेआम जाति आधारित ऊँच नीच को श्रेष्ठ और कथित निम्न जातियों को निकृष्ट बताने वाले बाबाओं,

बाबियों और कथावाचकों को गिरफ्तार करने की बजाय सरकारी खर्च पर उनके प्रवचन करवा रही है.  कलेक्टर से लेकर गाँव के चौकीदार,

अध्यापक से लेकर आंगनबाडी कर्मियों तक को उनके लिए भीड़ जुटाने के काम में लगा रही है. संघ के चाल, चरित्र, चेहरे की इसी विशेषता के चलते

भागवत साहब के कहे को उसके शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जा सकता क्योंकि आरएसएस भारत का एकमात्र ऐसा संगठन है, जो जिन विचारों में विश्वास रखता है

उसका आधार ही वर्णाश्रम, ऊंची जाति, नीची जाति और उसके आधार पर सामजिक हैसियत का निर्धारण है. इसका राजनीतिक-सामाजिक ध्येय ग्रन्थ, जिसे सावरकर पांचवा वेद बताते थे,

मनुस्मृति है, जो कुछ के अधिकारों के साथ बाकियों की वंचना का सख्त प्रावधान करता है. क्या भागवत यह कहना चाहते हैं कि अब आरएसएस वर्णाश्रम, जाति-श्रेणीक्रम में यकीन नहीं करता?

क्या वे यह कहेंगे कि अब उन्होंने उस मनुस्मृति को पूरी तरह से त्याग दिया है, जिसे वे भारत के संविधान की जगह स्थापित करना चाहते थे/हैं?

क्या वे यह एलान करेंगे कि “वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है. “जिस देश में चातुर्वर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है, आर्यावर्त नहीं है.”

कहने वाले तथा “ब्राह्मणों के शासन को हिन्दू राष्ट्र का आदर्श” बताने वाले सावरकर गलत थे? पिछले 2000 सालों में “साथी मनुष्यों को जानवरों जैसी जिन्दगी”

दिए जाने की बात कहते समय वे यह भी कहेंगे कि “जातियां प्राचीन काल में भी थीं और वे हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन के हजारों सालों तक बनी रहीं.

परन्तु कहीं भी, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि उनके कारण समाज की उन्नति में कोई बाधा आई हो या उनने सामाजिक एकता को तोड़ा हो.

बल्कि उसने सामाजिक एकजुटता को मजबूती दी” का दावा करने वाले संघ के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गलत और झूठ बोल रहे थे?

दरअसल इस और ऐसी ही दीगर कलाबाजियों का एकमात्र मकसद 2024 के चुनाव हैं. पूरे गिरोह में घबराहट है. इतनी ज्यादा घबराहट कि विपक्षी दलों के

समावेश का पुकारने वाला नाम इंडिया हो जाने के बाद वे भारत दैट इज इंडिया में से इंडिया को ही हटाने पर आमादा-ए-फसाद हुए पड़े हैं.

उन्हें याद है कि 2015 में इन्ही भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान पर बिहार की जनता ने इनकी किस तरह मिट्टीपलीद कर के रख दी थी.

वाम और धर्मनिरपेक्ष दलों तथा सामाजिक समूहों द्वारा हिदुत्व का असली स्वरुप बेपर्दा करने के बाद उसकी जगह सनातन लाते ही जिस तरह की बहस शुरू हुई,

उससे एक बार अँधेरे कोने में पहुँच जाने का निहितार्थ बहुत जल्दी इनकी समझ में आ गया है.

भागवत की इस नई भागवत का उद्देश्य इन सब से हुए नुकसान को पाटना है, ताकि गोदी मीडिया की तमाम कोशिशों के बावजूद सर चढ़कर बोल रही चौतरफा विफलताओं की पर्देदारी की जा सके.

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कागज की नाव जनता में उठ रहे आक्रोश के तूफ़ान और गुस्से की बाढ़ में टिकने वाली नहीं हैं.

भारत दैट इज इंडिया के लोग वक्तव्यों की कंठी माला पहनाकर भेड़िये के शाकाहारी होने के झांसे और मुगालते में आने वाले नहीं है. 

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं- संपर्क : 94250-06716)

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