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पिछले 6 वर्षों के नरेंद्र मोदी के शासनकाल में न्यायपालिका इस कदर लुंज-पुंज और हास्यास्पद बन गई है कि आम लोगों के मन में उसका भरोसा ही खत्म होता जा रहा है.

वर्तमान में रिपब्लिक टीवी के पत्रकार अर्णव गोस्वामी के प्रकरण में तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने आप को जिस तरह संघ और भाजपा का वफादार सेवक प्रदर्शित किया उससे उसकी निष्पक्षता का भरम भी खत्म हो गया है.

दूसरी तरफ मजाक उड़ाए जाने पर वह जिस तरह की एक कॉमेडी कलाकार कुणाल कामरा के विरुद्ध अवमानना का मामला शुरू किया उससे उसके पतन का उदाहरण स्वत: मिल जा रहा है.

न्यायपालिका से भरोसा खत्म होने का नतीजा गंभीर रूप से सामने आ सकता है, क्योंकि अब लोग अदालत का मुंह देखे बगैर सीधे कानून हाथ में लेने लगे हैं.

यहां तक कि हताश, निराश और मायूस होकर ऐसे भी लोग समाज में दिखे जो आत्महत्या जैसा कृत्य करने पर भी विवश हो गए. लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का दायित्व जिस न्यायपालिका के पास है वह सत्ता के कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति करने में अब सहयोगी की भूमिका निभा रही है.

इससे अधिक शर्म की बात क्या हो सकती है ? हद तो तब हो जाती है जब सोशल मीडिया पर जजों के विषय में चुटकुले प्रसारित होने लगे हैं और कहा जाने लगा है कि लोया बनने के डर से जज मोदी सरकार के सभी आदेशों का पालन कर रहा है.

जस्टिस रंजन गोगोई के प्रकरण को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है जो अयोध्या मामले में सरकार के पक्ष में फैसला देकर सीधा राज्य सभा पहुंच गए.

पिछले दिनों दिल्ली में मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश तथा विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के पतन की शुरुआतवर्ष 2014 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के साथ ही प्रारंभ हो गया.

सन 2014 के बाद से हर उस संस्था तंत्र और उपकरण को कमजोर किया जा रहा है जो कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए निर्मित किये गये हैं.

संसद के अधिकार और उसकी महत्ताको किस हद तक कम कर दिया गया है इसका पता इस तथ्य से जाहिर होता है कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान संसद की बैठक आयोजित नहीं की गई.

किंतु जैसे ही अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई संसद में प्रश्नकाल ही आयोजित नहीं किया गया क्योंकि संसद को अपाहिज बना दिया गया था.

ऐसे में अन्य संस्थाओं का यह कर्तव्य था कि वह आगे बढ़कर कार्यपालिका पर अंकुश लगाते परंतु यह भी नहीं हुआ यहां तक कि लोकपाल के विषय में चर्चा करना तो अब बंद ही हो गया है.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सुषुप्ता अवस्था में है. चुनाव आयोग के निर्णय अत्यंत हास्यास्पद और संदेहास्पद लगते हैं, सूचना आयोग पंगु है, शिक्षाविदों मीडिया और नागरिक समाज को भी विभिन्न तरकीब उसे चुप करा दिया गया है.

विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर आए दिन हमले हो रहे हैं, विद्यार्थियों को दंगा करने के आरोप लगाए जा रहे हैं तथा शिक्षकों को आपराधिक षड्यंत्र का दोषी ठहरा कर उन्हें हाशिए पर ला दिया गया है.

भारत में मुख्य धारा की निष्पक्ष प्रेस की अवधारणा तो कब की समाप्त हो चुकी है, सीएए (CAA), किसान एकता को न्यायालय में चुनौती दी गई परंतु उसने किसी न किसी बहाने से इस मुद्दे पर सुनवाई ही नहीं किया.

दूसरी तरफ सरकार इस अधिनियम का विरोध करने वाले लोगों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ा, यहां तक कि देशद्रोह के आरोप तक ऐसे निर्दोष लोगों पर लगाया गया जिनका दंगों और अव्यवस्था अशांति फैलाने वाले गतिविधियों से कहीं कोई साम्यता ही नहीं थी.

इन सब गतिविधियों को उच्चतम न्यायालय चुपचाप देखता रहा है दिल्ली दंगों और सीएलपीआर (CLPR) के विरोध में बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों को फंसाया गया है.

यही बात भीमा कोरेगांव मामले में भी सही है, सुधा भारद्वाज गौतम नौलखा जैसे लोग कई महीनों से अभी भी जेल में बंद है और उन्हें जमानत नहीं मिल पा रही है, सरकार द्वारा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना एक खतरनाक संकेत है.

एकाधिकार वादी सरकार राज्य के तंत्र और उसके संस्थाओं का उपयोग नागरिकों का दमन करने तथा उन्हें चुप कराने के लिए करती हैं उच्च न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायपालिका संस्थाओं को प्रजातंत्र को बचाए रखने के लिए आगे आना आवश्यक है.

कश्मीर घाटी में इंटरनेट और अन्य संचार सुविधाओं को ठप करने के निर्णय का परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 के प्रकाश में करने के बजाय भारत सरकार के नेतृत्व में विशेष रिव्यू कमेटी को सौंप दिया.

इस निर्णय से कश्मीर में शिक्षा और व्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़े हैं साथ ही अर्थव्यवस्था और व्यापार व्यवसाय भी ठप हो गये राज्य की जनता की दुख और कष्ट में बढ़ोतरी हुई है इसमें कोई संदेह नहीं है.

(साभार जनज्वार: वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण)

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