सुशील भीमटा

BYSUSHIL BHIMTA


कैसा धर्म? कैसी आस्था? कैसा संप्रदाय? इंसान बन जायें तो वतन लहुलुहान होनें और आडंबरों से बच जाए।

धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता के संक्रमण से इंसानियत का वजूद संकट में आ गया है। टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर हर रोज कभी धर्म, कभी आस्था तो कभी संप्रदाय के नाम पर एेसी हृदय विदारक घटना देखने को मिल रही है जिससे इंसानियत शर्मसार है। क्या यही इंसान का विकास है?

आज आजादी के 70 साल बाद भी हम सियासत और धर्म के ठेकेदारों के गुलाम क्यों हैं? हमने अपनी तार्किक, बौद्धिक क्षमता को विकसित कर स्वयं को प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में उभारा है। इतना ही नहीं दया, प्रेम, सदाचार, सहयोग, संवेदनशीलता जैसे बेशकीमती गुणों को उत्पन्न कर इंसानियत का रूप भी दिया।

विडंबना देखिए इतनी लंबी कठिन जीवन यात्रा को सफलता के साथ पूरा करने वाला वही इंसान आज धार्मिक उन्माद, आस्था व संप्रदायिकता के संक्रमण से ग्रसित हो गया। यकीनन धर्म, संप्रदाय व आस्था मानव द्वारा निर्मित समाजिक परिवेश की वह भूल व चूक है जिसे निरंतर सियासत धार्मिक फूट व लूट के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

आजादी से अब तक के सफर में सबसे ज्यादा सियासी दांव जाति और धर्म के नाम पर खेले जाते रहे हैं। राम-रहीम, आसाराम और कई अन्य बाबों के ढाबों में नारी की अस्मता तक लूटी जाती है और सियासी शिकारी उन्हें सुरक्षा प्रदान कर उनके दम पर सियासी खिचड़ी बनाते आये हैं।

न्यूज़ चैनलों के माध्यम से सरेआम तन्त्र-मंत्र का व्यापार प्रचार किया जाता है। बाबा लोग राजनीति में उतारे जाते हैं। आज यही धर्म, संपद्राय संक्रमित होकर इंसानियत की उस नींव पर ही हमला कर रहा जिसपर यह सभ्य समाज खडा है।

सवाल यह है कि क्या हम सभी को इन सामाजिक भूलों के संक्रमण को फैलने में मदद करनी चाहिए या फिर धर्म, आस्था व संप्रदाय के नाम पर इंसानियत पर हो रहे हमलों की खिलाफत करनी चाहिए ?

दूर्भागयवश, हम उल्टा कर रहे हैं। हमारे लिए इंसानियत मूल्यविहीन हो गई है अौर धर्म के ठेकेदारों, राजनेताओं द्वारा फैलाया जा रहा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, आस्था व संप्रदाय का संक्रमण प्रभावी होता जा रहा है।

परिणाम स्वरूप हमारे लिए मंदिर, मस्जिद, चर्च, तीन तलाक, गऊ हत्या, राष्ट्रीय प्रेम अब आपसी एकता, सौहार्द व प्रेम से बढकर हो गई है। जबकि इन सभी समस्याओं का हल इंसानियत का दामन थाम कर एक साथ संभव है।

हम सभी किसी भी धर्म, संप्रदाय या आस्था के लिए लड़ने से पहले एक बेहतर इंसान बन जाऐं। अपने धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ हमें देश के प्रति अपने इस फर्ज को निभाना भी लाजमी है।

ये धरती अपनों के हाथों ही लहुलुहान होनें लगी जो परमात्मा हमें जीवन देता है उसी के नाम पर सियासत होनें लगी। रुकना होगा हमें और रोकना भी होगा हमें।

सहयोगी-नरेंद्र चौहान

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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