यूपीकोका (उत्तर प्रदेश संगठित अपराध नियन्त्रण अधिनियम 2017) में संगठित अपराध की परिभाषा में शामिल अपराध है फिरौती के लिए अपरहरण करना, अवैध-खनन, गैर-कानूनी तरीके से शराब बनाना और बेचना, डरा-धमका कर किसी कि संपत्ति छीन लेना/संविदा को छीन लेना, संगठित रूप से जंगली जानवर और पेड़ों का व्यापार करना, नकली दवाइयां बनाना, सरकार कि संपत्ति या निजी संपत्ति को हड़पना, रंगदारी वसूलना जैसे अपराध शामिल है।

कैसे खतरनाक हो सकता है यूपीकोका

वैसे भी जगजाहिर है यूपी में बीजेपी सरकार आने के बाद से अपराध की बाढ़-सी आ गयी है। जिससे पिछली सरकारों के सारे रिकॉर्ड टूट चुके हैं | यहाँ इस विधेयक को विपक्ष के द्वारा ड्रैकोनियन (सख्त ) कहा जा रहा है | यूपीकोका में कुछ चीजें ऐसी है जिससे कहा जा  सकता है कि यह अधिनियम ड्रैकोनियन साबित हो सकता है जैसे :-
  • एक बार यूपी कोका के तहत गिरफ्तार हो जाने पर 6 महीने से पहले जमानत नही मिलेगी
  • पुलिस किसी को भी 30 दिन तक हिरासत में रख सकती है
  • इस अपराध में कम से कम 3 साल तक की सजा हो सकती है और अधिकतम आजीवन कारावास या मृत्युदंड भी दिया जा सकता है
  • इस अपराध में अर्थदंड 5 लाख से 25 लाख तक दिया जा सकता है
  • इस अपराध में चार्जसीट (आरोप पत्र) जमा 90 दिन से बढ़ाकर 180 दिन कर दिया गया है जिससे अधिकारियों का मनमाना रवैया भी देखने को मिल सकता है
इन सब वजह से अभियुक्त को विधिक सेवा लेने में भी बहुत कठिनाई होगी
  • किसी वीडियो फुटेज में या फोटो में इस व्यक्ति ने अपराध किया है या वहां अपराधियो के साथ फुटेज में दिख रहा है तो उसे पुलिस गिताफ्तर कर सकती है (आजकल के डिजिटल युग में वीडियो फुटेज या फोटो के साथ छेड़छाड़ भी किया जा सकता है)
  • यूपीकोका के तहत जो भी गिरफ्तार होगा उसे जेल में उच्चसिक्योरिटी (रक्षा ) क्षेत्र में रखा जायेगा (जिससे वह भाग ना सके संगठन बना कर)
  • यूपीकोका के तहत किसी कैदी को किसी प्रकार कि बीमारी है तो अस्पताल में भर्ती होने के लिए पहले उसे मेडिकल बोर्ड का अनुमोदन चाहिए होगा 36 घंटे से ज्यादा अस्पताल में रहने के लिए
  • यूपीकोका को मीडिया के विरोध में भी माना जा रहा है क्योंकि किसी भी पत्रकार को संगठित अपराध के बारे में लिखना या छापना या दिखाना है तो पहले सक्षम अधिकारी से अनुमति चाहिए होगी। अगर वह ऐसा करते पाए जाते है तो वह गैर कानूनी माना जायेगा

सीएम की सोच का पूरा होना इतना आसान नहीं

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मानना है कि इस कानून से कानून का राज (रूल ऑफ़ लॉ ) स्थापित होगा जिससे गैंगेस्टर एक्ट और गुंडा एक्ट भी मजबूत होगा और उत्तर प्रदेश की छवि भी सुधरेगी। ऐसा नहीं है कि इस तरीके का कानून पहली बार लाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में इससे पहले 2007-08 में जब मायावती मुख्यमंत्री थीं तो भी ऐसा कानून लाया गया था। उस बिल को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अनुमति देने से मना कर दिया था, ये कहते हुये कि अथॉरिटी को ज्यादा अधिकार मिल जायेगा। जिससे कानून का गलत इस्तेमाल होगा। जबकि ऐसा कहना गलत है क्योंकि हमारे आपराधिक न्यायिक प्रणाली (CRMINAL JUSTICE SYSTEM) में कानून के गलत इस्तेमाल का अलग से सजा का प्रावधान है। इसका मतलब यह तो नही कि अथॉरिटी के गलत इस्तेमाल के डर से कानून बनाना बंद कर दिया जाए।

समूचा विपक्ष कर रहा विरोध

आज सारी विपक्षी पार्टियाँ इस कानून का विरोध कर रही है। मायावती कह रही हैं यह कानून पिछड़ा-दलित, अल्पसंखक विरोधी है। उनका मानना है कि इस कानून का इस्तेमाल पूर्वाग्रह, द्वेष, राजनीतिक प्रतिशोध कि भावना से किया जायेगा। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार इस विधेयक के ज़रिये यूपीकोका कानून बनाना चाहती है, जो दरअसल धोखा है। सरकार अगर डायल-100 और 1090 सेवाओं को बेहतर बनाए तो यूपीकोका की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों को पुलिस के माध्यम से चुप कराने के लिए विधेयक लाई है। साथ ही अपनी मांगों को लेकर लखनऊ में प्रदर्शन करने वाले लोगों को रोकना भी इसका मकसद है।

खिलाफत करने वालों को दबाना, लोकतंत्र का गला घोंटना है

सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाजों को हिंसक करार देकर योगी सरकार यूपीकोका के जरिए लोकतंत्र का गला घोटने पर उतारु है। जिस प्रदेश का मुखिया कहता हो कि अपराधी जेल में जाएंगे या मारे जाएंगे उससे साफ हो जाता है की सूबे में अराजकता का दौर चल रहा है। जब राज्य मानवाधिकार आयोग पुलिस के खिलाफ सबसे अधिक शिकायत होने की बात कहता हो और प्रतिदिन हिरासत में एक मौत होती हो वहां प्रशासन के हाथों में यूपीकोका आने से प्रदेश के आम नागरिक असुरक्षित महसूस करेंगे।

गैरलोकतांत्रिक कानूनों की कड़ी है यूपीकोका

यूपीकोका में आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने की शर्त साफ करती है कि यह निरंकुश टाडा-पोटा जैसे गैरलोकतांत्रिक कानूनों की ही अगली कड़ी है। यूपीकोका के अंतर्गत मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकार ने हमला बोला है। आरोपी के मुलाकातियों पर सख्ती की बात साफ करती है कि न सिर्फ उसके मौलिक अधिकारों का हनन होगा बल्कि उसकी प्रताड़ना का संशय बराबर बना रहेगा। जब सामान्य कानूनों के नाम पर योगी सरकार ने फर्जी मुठभेड़ों का इतना क्रूरतम अध्याय 6 महीने में लिख दिया कि एनएचआरसी को उसे नोटिस करना पड़ा, तो साफ है कि यूपीकोका के बल पर वह भाजपा की सांप्रदायिक जेहनियत के तहत मुसलमानों-दलितों पर हमलावर होगी। यूपीकोका के जरिए प्रशासन को निरंकुश बनाकर लोकतंत्र को सैन्यतंत्र में तब्दील करने की यह फासिस्ट कोशिश है।

कठोर कानून तब बने जब आंकड़े इसकी तस्दीक करें

कठोर कानूनों के बनाए जाने का उस समय कोई अर्थ नहीं रह जाता जब वे बिना किसी सार्थक परिणाम के हों। वर्तमान संदर्भ प्रस्तावित यूपी कोका का है जिसमें प्रावधान किया जा रहा है यह कानून जिन अपराधियों के विरुद्ध लाया जा रहा है उनका सर्वप्रथम आपराधिक इतिहास होना चाहिए और द्वितीय यह की उनके विरुद्ध कम से कम दो मामलों में आरोप पत्र हो और दोष सिद्ध भी हुए हों। इस स्थिति में सरकार को पहले यह बताना चाहिए कि ऐसे कितने अपराधी हैं जो वर्तमान कानूनों के चंगुल से बाहर निकल गए हों और उनके लिए यूपीकोका जैसे कानून लाना अनिवार्य हो गया हो? सच्चाई यह है कि यदि निष्पक्ष विवेचना करके ठोस सबूत इकट्ठा किए गए होते तो ऐसा कोई भी अपराधी कानून के चंगुल से नहीं बचा होता। सरकार सिर्फ कठोर कानून लाकर अपने मजबूत शासन के होने का दिखावा करना चाहती है जबकि उसकी जांच एजेंसियां न तो निष्पक्ष विवेचना करती हैं और न ही मजबूत साक्ष्य जुटाती हैं। ऐसे कितने अपराधी हैं जो दो या दो से अधिक आतंकवाद से संबन्धित अपराधों में मुकदमों में आरोपी हैं और ऐसा कौन सा नया मामला है जिनमें उनकी नई भूमिका पाई जा रही हो जिसके लिए यूपीकोका लाया जाना जरुरी हो गया हो। दरअसल सरकार के पास न तो कोई ठोस आंकड़ा है न आधार है। दमनकारी कानून बना कर उसका गलत इस्तेमाल ही होगा वहीं अपराधी को ही अगर अपने बेगुनाह होने का सबूत देना होगा तो यह पूरे अपराध विधि शास्त्र के सिद्धांतों को ही बदल देगा। अपराधी को यह पता होना चाहिए की कौन उसके विरुद्ध गवाही दे रहा है और प्रत्येक केस में यदि गवाह की पहचान को छुपाए जाने का चलन हो गया तो इससे कानून का दुरुपयोग तो होगा ही न्याय की हानि भी होगी। 60 दिन की अवधि का पुलिस रिमांड पर्याप्त होता है यदि 60 दिन की अवधि के भीतर पुलिस कोई तथ्य/जानकारी अपराधी से नहीं हासिल कर पाती है तो यह भी उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़े करता है। रिमांड अवधि बढ़ाने से आरोपियों पर पुलिस का दमन चक्र ही बढ़ेगा। यह अजीब विडंबना है कि सरकारें यूपीकोका जैसा दमनकारी कानून लाने के लिए तो प्रयत्नशील हैं मगर सुप्रिम कोर्ट के लगभग 12 वर्ष पूर्व प्रकाश सिंह मामले में दिए गए फैसले पर अमल नहीं करना चाह रही हैं जिसमें सुप्रिम कोर्ट ने देश की सभी राज्य सरकारों को निर्देष दिया था कि एक ही थाने में कानून व्यवस्था संभालने वाले और मामलों की विवेचना करने वाले पुलिस अफसर अलग हों। यह एक कड़वी सच्चाई है कि दोनों जिम्मेदारियां संभालने के कारण मामलों की विवेचना समय पर और सही प्रकार से नहीं हो पाती। मगर सरकारों को इससे कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ कठोर सरकार का अपना चेहरा दिखाने में ही लगी हैं। न्याय और प्रशासन व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त बनाने में नहीं। ऐसे अपराध जो किसी सांप्रदायिक दुर्भावना के साथ किए जा रहे हैं वो भी संगठित अपराध हैं और उनके विरुद्ध भी कठोर कानून अलग से लाना चाहिए। क्यों कि वहां ऐसे नए अपराधी होते हैं जिनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं होता बल्कि वे सांप्रदायिक उकसावे में आकर किसी संगठन से जुड़े होने के कारण सांप्रदायिक हिंसा साजिशन कर देते हैं।
इस कानून का सभी विपक्षी पार्टीयों औरे मानवाधिकार संगठनो को भी गलत इस्तेमाल का डर सता रहा है |ऐसा संभव भी हो सकता है क्योंकि अभी से ही सत्ताधारी पार्टी के विधायक इस कानून का हवाला देकर धमकाना शुरू कर दिए है जिसमे बस्ती जिले के एक विधायक का वीडियो वायरल हो रहा है।
इस  विवाद से यह उत्पन्न होता है कि क्या हमें इतने सख्त कानून कि जरूरत है या नहीं। अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य को संगठित अपराध से मुक्त कराना है तो पहली बात यह तो  साफ है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही संगठित अपराध नही हो रहे है यह हर राज्य में है चाहे पंजाब, मध्यप्रदेश हो सब जगह संगठित अपराध है।
मीडिया को इससे दूर रखा गया जिसकी अच्छाइयां और बुराइयाँ भी है। जैसे भारत में मीडिया ट्रायल बहुत होते है मीडिया ही तय कर देती है कि वह व्यक्ति अपराधी है या नही सिर्फ अपनी प्रसिद्धी के लिए और बुराई भी है क्यूंकि मीडिया को भारत में चौथा स्तम्भ माना जाता है।
इस अधिनियम को भी गलत इस्तेमाल से खत्म किया जा सकता है जैसे टाडा (TADA) को पोटा (POTA) के  स्थान पर बदल दिया गया था। लेकिन  बाद में  इन दोनों अधिनियम को गलत इस्तेमाल से सरकार द्वारा निलंबित कर दिया गया भारत के मानवाधिकार आयोग द्वारा विरोध किए जाने के कारण क्योंकि  95% मामलों में अभियुक्त बरी हुए और केवल 2% मामलों में अभियुक्त को सजा हुई थी। मकोका (महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश संगठित अपराध नियन्त्रण अधिनियम 2017) की तर्ज़ पर बनाया गया यह कानून मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों के उत्पीड़न के लिए जातिगत और धार्मिक द्वेष की भावना से प्रयोग में लाया गया तो मानवाधिकार का हनन होगा।

लेखक- अनुराग चौधरी

यह लेख लखनऊ के डॉ़ राममनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय के द्वितीय वर्ष छात्र अनुराग चौधरी ने लिखा है। अनुराग तमाम सामाजिक कार्यों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। पढ़ाई के साथ कानून की जरुरतों और उनकी उपयोगिता पर अपनी राय भी रखते हैं। यह संपूर्ण लेख उन्होंने ही लिखा है

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