पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. (फोटो: रॉयटर्स)

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अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय समाज के उस मर्म को बखूबी समझते रहे कि अति की सोच भारत जैसे लोकतांत्रिक-सेक्युलर देश में संभव नहीं है. इसलिए पीएम की कुर्सी पर बैठे भी तो उन विवादास्पद मुद्दों को दरकिनार कर जिस पर देश में सहमति नहीं है.

वाजपेयी की कविताएं, वाजपेयी के साहसिक निर्णय. वाजपेयी की संवेदनशीलता. वाजपेयी की कश्मीर नीति. वाजपेयी की सरकार चलाने की काबिलियत.

अटल बिहारी वाजपेयी को कैसे याद करें या किन-किन खांचों में वाजपेयी को बांटे? ये सवाल भी है और शायद जवाब भी कि वाजपेयी को किसी एक फ्रेम में माला पहनाकर याद करते हुए भुलाया नहीं जा सकता है.

यादों की परतें वाजपेयी के सरोकार से खुलेंगी तो फिर नेहरू से लेकर मोदी तक के दौर को प्रभावित करने वाले शख्स के तौर पर रेखाएं खिंचने लगेंगी. जिक्र नेहरू की कश्मीर नीति पर संसद के भीतर पिछली बेंच पर बैठे युवा अटल बिहारी वाजपेयी के उस आक्रोश से भी छलक जाएगा जो श्यामाप्रसाद मुखर्जी की सोच तले नेहरू को खारिज करने से नहीं चूकते.

पर अगले ही क्षण नेहरू के इस एहसास के साथ भी जुड़ जाते हैं कि राष्ट्र निर्माण में पक्ष-विपक्ष की सोच तले हालातों को बांटा नहीं जा सकता बल्कि सामूहिकता का निचोड़ ही राष्ट्रनिर्माण की दिशा में ले जाता है.

और शायद यही वजह भी रही कि नेहरू के निधन पर संसद में जब वाजपेयी बोलने खड़े हुए तो संसद में मौजूद तमाम धुरंधर भी एकटक 40 बरस के युवा सांसद की उस शब्दावली में खो गए जो उन्होने नेहरू के बारे में कहीं.

**FILE** New Delhi: In this Nov 24, 2005, file photo former prime minister Atal Bihari Vajpayee (3rd from R) is seen with other NDA leaders at a swearing-in ceremony in Patna. Vajpayee, 93, passed away on Thursday, Aug 16, 2018, at the All India Institute of Medical Sciences, New Delhi after a prolonged illness. (PTI Photo) (PTI8_16_2018_000191B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

देश की सांस्कृतिक विरासत और आजादी के संघर्ष को एक ही धागे में पिरोकर वाजपेयी ने नेहरू के बारे में जो कहा उसके बाद तब के उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन से लेकर गुलजारी लाल नंदा ने भी तारीफ की.

ये वाजपेयी का ही कैनवास था कि राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर जनसंघ की उम्र पूरी होने के बाद जब 1980 में भाजपा बनी तो वाजपेयी ने अपने पहले ही भाषण में गांधीवादी समाजवाद का मॉडल अपनी पार्टी के लिए रखा.

यानी नेहरू की छाप वाजपेयी पर घुर विरोधी होने के बावजूद कितनी रही ये महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि विचारों का समावेश कर कैसे भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की जड़ों को और मजबूत किया जा सकता है, इस दिशा में बढ़ते वाजपेयी के कदम ने ही उन्हें जीवित रहते वक्त ही एक ऐसे लीजेंड स्टेट्समैन के तौर पर मान्यता दिला दी कि देश के किसी भी प्रांत में, किसी भी पार्टी की सरकार हो या फिर देश में उनके बाद मनमोहन सिंह की सरकार बनी या अब नरेंद्र मोदी अगुवाई कर रहे हैं लेकिन हर मुद्दे को लेकर वाजपेयी डॉक्टरिन का जिक्र हर किसी ने किया.

कल्पना कीजिये कश्मीर के अलगाववादी नेता भी वाजपेयी की कश्मीर नीति के मुरीद हो गए और लाहौर यात्रा के दौरान वाजपेयी ने जब पाकिस्तान की जनता को संबोधित किया तो नवाज शरीफ ये बोलने से नहीं चूके कि ‘वाजपेयी जी, आप तो पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं.’

यूं वाजपेयी के बहुमुखी व्यक्तित्व की ये सिर्फ खासियत भर नहीं रही कि आज शिवसेना को भी वाजपेयी वाली भाजपा चाहिए. और ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक से लेकर डीएमके-एआईडीएमके भी वाजपेयी के मुरीद रहे और हैं.

बल्कि भाजपा की धुर विरोधी कांग्रेस को भी वाजपेयी अपने करीब पाते रहे. इसीलिए तेरह दिन की सरकार गिरी तो अपने भाषण में वाजपेयी ने बेहद सरलता से कहा, ‘विपक्ष कहता है वाजपेयी तो ठीक हैं पर पार्टी ठीक नहीं. यानी मैं सही हूं और भाजपा सही नहीं है. तो मैं क्या करूं. पर मेरी पार्टी, मेरी विचारधारा भाजपा से जुड़ी है.’

यूं सच यही है कि सत्ता चलाने का हुनर भर ही नहीं बल्कि नीतियों का समावेश कर भारतीय जनमानस के अनुकूल करने की सोच कैसे वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन में ढाली और हर किसी को प्रभावित किया, ये इससे भी साबित होता है कि पीवी नरसिम्हा राव की आर्थिक सुधार की नीतियों को ट्रैक-टू के जरिये 1998-2004 के दौर में यह जानते-समझते हुए अपनाया कि संघ परिवार इसका विरोध करेगा.

वो भारतीय मजदूर संघ व स्वदेशी जागरण मंच के निशाने पर होंगे. पर डिसइनवेस्टमेंट से लेकर एफडीआई और खुले बाजार के प्रर्वतक के तौर पर वाजपेयी ने सरकार चलाते हुए तब भी कोई समझौता नहीं किया जब दत्तोपंत ठेंगड़ी, गुरुमूर्त्ति, गोविंदाचार्य और मदगनदास देवी उनकी नीतियों का खुले तौर पर विरोध करते नजर आए.

विरोध हुआ तो वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को पद से हटाया जरूर लेकिन उसके बाद बने वित्तमंत्री जसवंत सिंह ने भी आर्थिक सुधार के ट्रैक-टू की लकीर को नहीं छोड़ा.

फिर खासतौर से मंडल-कमंडल में फंसे देश के बीच वाजपेयी के सामने ये भी मुश्किल थी कि वह किस दिशा में जाये. पर सामूहिकता का बोध लिए राजनीति को साधने वाले वाजपेयी की ही ये खासियत थी कि ना तो वह वीपी सिंह के मंडल कार्ड के साथ खड़े हुए और ना ही सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए निकली आडवाणी की रथयात्रा में कहीं नजर आये.

यानी वाजपेयी भारतीय समाज के उस मर्म को बखूबी समझते रहे कि अति की सोच भारत जैसे लोकतांत्रिक-सेक्युलर देश में संभव नहीं है. इसलिए पीएम की कुर्सी पर बैठे भी तो उन विवादास्पद मुद्दों को दरकिनार कर जिस पर देश में सहमति नहीं है.

पर भाजपा ही नही संघ परिवार के भी वह मुख्य मुद्दे हैं. धारा 370, कॉमन सिविल कोड और अयोध्या में राम मंदिर. यानी सहमति बनाकर सत्ता कैसे चलनी चाहिए और सत्ता चलानी पड़े तो सहमति कैसे बनायी जानी चाहिए, इस सोच को जिस तरह वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जिंदगी में उतारा उसी का असर रहा कि नेहरू ने जीते जी युवा वाजपेयी की पीठ ठोंकी.

इंदिरा गांधी भी अपने समकक्ष वाजपेयी की शख्सियत को नकार नहीं पायी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी वाजपेयी के मुरीद रहे बिना राजनीति साध नहीं पाये. और इन सब के पीछे जो सबसे मजबूत विचार वाजपेयी के साथ रहा वह उनकी मानवीयता के गुण थे.

और इसकी जीती-जागती तस्वीर लेखक यानी मेरे सामने 2003 में तब उभरी जब वाजपेयी आंतकवाद से प्रभावित कश्मीर पहुंचे. और वहां उन्होंने अपने भाषण में संविधान के दायरे का जिक्र ना कर जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत का जिक्र किया.

और भाषण के ठीक बाद श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही प्रेस कॉन्फ्रेस में जब मैंने अपना नाम और संस्थान का नाम (पुण्य प्रसून वाजपेयी, एनडीटीवी इंडिया) बताकर सवाल किया, ‘कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए जम्हूरियत, कश्मीरियत तो ठीक है पर इंसानियत के जिक्र की जरूरत उन्हें क्यों पड़ी.’ तो देश के प्रधानमंत्री वाजपेयी ने बेहद सरलता से जवाब दिया, ‘क्या एक वाजपेयी काफी नहीं है. और फिर जोर से ठहाका लगाकर बोले इंसानियत यही है.’

और शायद यही वह इंसानियत रही जिसकी टीस 2002 में वाजपेयी के जेहन में गुजरात दंगों के वक्त तब उभरी जब उन्होंने अब के पीएम और तब के गुजरात सीएम नरेंद्र मोदी को ‘राजधर्म’ का पाठ पढ़ाया. और शायद राजधर्म को लेकर ही वाजपेयी के जेहन में हमेशा से इंसानियत रही तभी तो अपनी कविता ‘हिंदू तन-मन’ में साफ लिखा…

‘होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम.
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जा कर कितनी मस्जिद तोड़ी
भू-भाग नहीं शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय
हिंदू तन-मन हिंदू जीवन रग-रग हिंदू मेरा परिचय.’

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

यह लेख
मूलतः द वायर में प्रकाशित हुआ है

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