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जाति गणना के मुद्दे पर, जो उत्तरी भारत में खासतौर पर तेजी से जोर पकड़ रहा है, भाजपा की दशा सांप-छंछूदर वाली हो गयी है.

उससे न उगलते बन रहा है और न निगलते. छत्तीसगढ़, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में चुनाव के मौजूदा चक्र में, भाजपा का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है, जो जाति गणना का मुद्दा जोर-शोर से उठा रही है.

विडंबनापूर्ण यह है कि इसके लिए पेश किए जा रहे मुख्य तर्क को जिस एक आसान से नारे में सूत्रबद्घ किया जा रहा है, वह पचास-साठ के दशकों में कांग्रेस के मुखर विरोधी रहे,

समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने दिया था—जिसकी जितनी गिनती भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी! इस सरल से सिद्घांत को झुठलाने की

बदहवास कोशिश में संघ-भाजपा के शीर्ष नेता ऐसी परस्पर विरोधी बातें कह रहे हैं, जो उनकी विश्वसनीयता को ही गिराने का काम कर रही हैं.

चुनाव के मौजूदा चक्र की तारीखों के एलान से भी पहले से, खासतौर पर छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में अपनी चुनावी सभाओं में,

खुद प्रधानमंत्री मोदी को जाति-गणना की मांग के खिलाफ दो आम दलीलें देते हुए देखा गया है, जो आपस में जुड़ती भी हैं.

पहली दलील तो यही है कि जाति की गणना, बांटने का काम करेगी, समझना मुश्किल नहीं है कि संघ परिवार के नेता जब ”बांटने-बंटने” की चिंता जताते हैं,

तो उनका आशय किस विभाजन से होता है! जाहिर है कि जाति गणना से उनकी शिकायत यही है कि इससे ”हिंदू” बंट जाएंगे.

लेकिन, जाति की सच्चाई के आधार पर हिंदू कहे जाने वाले तो, पहले ही बंटे हुए हैं. दूसरों यानी गैर-हिंदू कहलाने वालों से नफरत के सहारे,

हिंदू कहे जाने वालों के जाति के आधार पर बंटे होने की सच्चाई पर ऊपर-ऊपर से पर्दा डालकर, इस विभाजन को छुपाने की संघ-भाजपा तथा

उनके सगोत्रों की कोशिशों के बावजूद, जातिगत दर्जे की सच्चाई भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्यत: जन-जीवन को इतना ज्यादा

नियंत्रित करती है कि उसे नकारना किसी भी तरह संभव नहीं है. वास्तव में इस सच्चाई को नकारना, ऊंच-नीच पर आधारित, विशेषाधिकारों-निषेधों की इस व्यवस्था को और पुख्ता करने का ही काम करता है.

जाहिर है कि जाति की सच्चाई का इस तरह नकारा जाना, इस विभाजन में विशेषाधिकार की स्थिति-प्राप्त ऊंची जातियों के ही हित में जाता है

क्योंकि यह उनके विशेषाधिकारों को ही अदृश्य कर, अजर-अमर बनाने की व्यवस्था करता है और संघ-भाजपा तथा उनके भाई-बंद,

विचारधारात्मक रूप से इसी सवर्ण-विशेषाधिकारवादी या ब्राह्ममणवादी व्यवस्था के पोषक हैं.  जाति गणना के जरिए, इस विभाजन के विभिन्न घटकों के

अनुपात की सच्चाई के सामने आने में, प्रधानमंत्री मोदी समेत उनके संघ परिवार को हिंदुओं का ”विभाजन” ही अगर दिखाई देता है तो

इसलिए कि यह गणना, जाति-विभाजन पर आधारित मौजूदा संतुलन को अस्थिर कर सकती है; उसमें बदलाव की प्रक्रियाओं को आगे बढ़ा सकती है.

इसीलिए, एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा और उसके द्वारा नियंत्रित सरकार, हमेशा से हर दस साल पर होने वाली जनगणना में,

जाति-जनगणना का पहलू शामिल किए जाने का विरोध करती आयी है. पिछली सदी के आखिरी दशक के आरंभ से उठी पिछड़ा वर्ग के आंदोलन की

जबर्दस्त लहर में इस तबके के लिए एक हद तक शिक्षा व रोजगार में आरक्षण की व्यवस्था अपनाए जाने के बावजूद,

इन आरक्षणों के आधार के रूप में जाति गणना का उसका विरोध बना ही रहा है. यहां तक कि पिछले दशक के पूर्वार्द्घ में,

वर्तमान मोदी सरकार के आने से पहले राज्यों के आधार पर, सामाजिक-आर्थिक दर्जे की जो गणना की भी गयी थी, उसे भी तरह-तरह के बहानों से दफ्न ही कर दिया गया.

{To be continued…}

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