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भई, जगदीप धनखड़ साहब की बात में हमें तो बहुत दम लगता है. गांधी जी पिछली सदी के महापुरुष थे और मोदी जी, इस सदी के युगपुरुष!

गांधी जी भी अपने जमाने के महापुरुष थे, इससे उन्होंने कब इंकार किया है? आखिरकार, उपराष्ट्रपति हैं; प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति से सिर्फ एक सीढ़ी नीचे.

जब बाकी दुनिया इतनी गांधी-गांधी करती है, तो विश्व गुरु के नागरिक नंबर-दो, गांधी की मूर्ति के आगे सिर नवाने से क्यों इंकार करेंगे?

वैसे भी, सच्ची-झूठी की तो कहते नहीं, पर 1947 वाली आजादी तो गांधी जी ने दिलवायी ही थी. माना कि मोदी जी को दोबारा, 2014 में आजादी दिलवानी पड़ गयी,

लेकिन इससे गांधी जी का 1947 वाली आजादी दिलाना मिट थोड़े ही गया. पुरानी पड़ गयी, आधी-अधूरी रह गयी, पर अंगरेजों से दिलायी आजादी भी, थी तो आजादी ही.

फिर गांधी जी ठहरे महात्मा टाइप के आदमी. आम पब्लिक जैसा दीखने के चक्कर में कपड़े तक आधे बदन पर ही पहनते थे और भी बहुत कुछ.

गीता से प्रेम करते थे, खुद को आस्थावान हिंदू कहते थे, वगैरह, वगैरह. बस एक ही बात जरा प्राब्लम वाली थी- शाकाहारी थे, हिंसा के खिलाफ थे, गाय का आदर भी करते थे, पर दूध बकरी का ही पीते थे. 

बराबरी का उनका फंडा कुछ अजीब सा था-बकरी को गाय के बराबर और मुसलमानों, ईसाइयों वगैरह को हिंदुओं के बराबर, खुद तो मानते ही थे, बाकी सब से मनवाने की भी कोशिश करते थे.

इसी चक्कर में गोड़से के हाथों से खुद को मरवा भी लिया पर कोई न कोई कमजोरी तो सभी में होती है, आखिरकार चांद में भी दाग है.

गांधी जी भी महापुरुष थे, पर थे तो हम सब की तरह पुरुष ही. कुल मिलाकर गांधी जी भी महान तो जरूर थे; पर बीती शताब्दी के ही महान थे.

मोदी जी का तो खैर कहना ही क्या? चालू सदी में तो मोदी जी ही मोदी जी छाए हुए हैं. गांधी जी का हिसाब-किताब पिछली सदी में निपट लिया.

{To be continued…}

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