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भई इसे कहते हैं विश्व गुरु वाला दांव. एक साथ दो नावों पर सवारी- बेशक, मुश्किल काम है बल्कि लोग तो जोखिम का काम भी कहते हैं.

दो नावों की सवारी करना आसान नहीं, पर आसान काम तो कोई भी कर लेगा. विश्व गुरु वाले काम में कम से कम मुश्किल तो होनी ही चाहिए.

अब एक मुंह से एक बात तो कोई भी बोल लेगा पर एक साथ एक मुंह से दो अलग-अलग बातें कर के दिखाना यानी दो-मुंही बात क्या हर किसी के बस की बात है?

और रही जोखिम की बात, तो छप्पन इंच की छाती, कम से कम किसी काम तो आनी चाहिए, यूं ही दिखाने के लिए कोई कब तक फालतू छाती फुलाए घूमता रह सकता है.?

तो भाई विश्व गुरु वाली बात ये हुई कि अपने मोदी जी ने फोन कर के मिस्र के राष्ट्रपति अल सीसी से साफ-साफ कह दिया कि

“वह उनकी बात से सौ टका सहमत हैं; गाज़ा-इज़रायल के मामले में शांति और स्थिरता की शीघ्र बहाली जरूरी है.

और तो और गाज़ा में बाईस लाख फिलिस्तीनियों को मानवीय सहायता मुहैया कराने की जरूरत पर भी, भारत पूरी तरह से सहमत है.”

पर इसमें मुश्किल वाली और जोखिम वाली यानी विश्व गुरु वाली कौन सी बात हो गयी? सरकारें भले न मानें, पर सारी दुनिया की पब्लिक देख रही है और यही तो कह रही है कि गाज़ा में आम नागरिकों का कत्लेआम बंद होना चाहिए.

चारों तरफ से घेरे में बंद, बाईस लाख फिलिस्तीनियों पर इज़रायल जो अंधाधुंध बम बरसा रहा है, उसमें आठ हजार से ज्यादा जानें तो अब तक जा भी चुकी हैं.

यह जनसंहार कम से कम अब तो बंद होना चाहिए. इज़रायल को निर्दोष नागरिकों और उसमें भी बड़ी तादाद में निर्दोष औरतों और बच्चों का कत्लेआम करने से रोका जाना चाहिए, वगैरह.

पर यही तो विश्व गुरु दांव है कि इस सीधी सी बात में भी, विश्व गुरु वाली बात पैदा हो गयी जिसे यह कोई बिरला ही साध सकता है.

मिस्र के राष्ट्रपति से फोन पर चर्चा हुई, वो दिन शनिवार का था. उससे पहले वाले ही दिन यानी शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में

भारत ने उस प्रस्ताव पर नोटा कर दिया जिसमें ठीक यही कहा गया था कि गाज़ा-इज़रायल के बीच फौरन, मानवतावादी कारणों से युद्ध विराम होना चाहिए!

शुक्रवार को यह मांग मंजूर नहीं थी कि मानवतावादी युद्ध विराम होना चाहिए और शनिवार को युद्ध का जारी रहना मंजूर नहीं था, फौरन शांति और स्थिरता की बहाली चाहिए थी.

एक साथ शांति और युद्ध दोनों चाहिए, एक साथ दोनों मांगना, विश्व गुरु से कम किसी के बस की बात है क्या.?

पर सच पूछिए तो विश्व गुरु होने के लिए एक मुंह से दो अलग-अलग बातें करना भी काफी नहीं है। माना कि यह भी आसान नहीं है, फिर भी काफी नहीं है.

विश्व गुरु का सम्मान मुश्किल से मिलता है, पर हर मुश्किल चीज विश्व गुरु का आसन नहीं दिला सकती है. विश्व गुरु का आसन और आगे की चीज है.

वह दो-मुंही बात बोलने से भी आगे की कलाकारी की मांग करता है. मसलन यही कि मोदी जी शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र संघ में

मानवतावादी युद्ध विराम की मांग पर नोटा करने के जरिए जो बोले और शनिवार को मिस्र से राष्ट्रपति को फोन कर के जो बोले, एक-दूसरे को काटते जरूर हैं.

फिर भी पूरी तरह से नहीं, यानी दोनों के एक-दूसरे को काटने के बाद भी, कुछ बचा रहता है, मोदी जी के एक्स्ट्रा एबी वाले फार्मूले की तरह- यही है असली विश्व गुरुत्व.

मसलन शनिवार को फोन पर युद्ध विराम के पक्ष में बोले, जबकि शुक्रवार को एक सौ बीस देशों की भीड़ के साथ, युद्ध विराम की मांग के पक्ष में तो खैर नहीं ही बोले, पर सीधे युद्ध विराम की मांग के खिलाफ भी नहीं बोले, अमेरिका-इज़रायल की तरह.

न हां, न ना, बस चुप रहे यानी युद्ध विराम की मांग के खिलाफ तो बोले, पर बोलकर नहीं, चुप रहकर! पर शनिवार को जो बोले.

हालांकि शुक्रवार की तरह भीड़ के बीच नहीं, अकेले में बोले, पर बोलकर बोले, चुप रहकर नहीं ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर

तोल कर बताया जा सकता है कि भले ही युद्ध और युद्ध विराम, दोनों के पक्ष में बोले, पर युद्ध विराम के पक्ष में ज्यादा जोर से बोले!

यह दूसरी बात है कि जरूरत होने पर पलड़ा दूसरी तरफ भी झुकाया जा सकता है. शुक्रवार को जो भी बोले, सारी दुनिया के सामने बोले,

जबकि शनिवार को जो बोले, मिस्र के राष्ट्रपति के कान में बोले, जो बोले सो तो किसी ने सुना नहीं, जो कहा कि बोले, सब सुनी-सुनाई है.

अब आप-सुनी का ज्यादा वजन होगा या सुनी-सुनाई का. अब प्लीज कोई इसमें कन्फूजन की नकारात्मकता मत खोजने लग जाना. बेशक, एक्स्ट्रा भी दो निकल आते हैं, डिमांड के हिसाब से.

चोर से कहे चोरी करते रहो, साहूकार से कहे जागते रहो! विश्व गुरु होने के लिए और कहां तक जाएंगे, गुरू!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं)

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